Sunday, February 17, 2019

CRPF की एडवाइजरी: सोशल मीडिया पर शेयर न करें शहीदों के अंगों की फर्जी तस्वीरें, कुछ लोग फैला रहे हैं नफरत, यहां करें शिकायत

नई दिल्ली: 
केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (CRPF) ने रविवार को एडवाइजरी जारी करके कहा है कि कुछ शरारती तत्वपुलवामा आतंकी हमले (Pulwama Terror Attack) के शहीदों के अंगों की फर्जी तस्वीरें सोशल मीडिया पर शेयर कर रहे हैं. शरारती तत्व ऐसा करके लोगों में नफरत फैला रहे हैं. कृप्या ऐसी तस्वीरें और पोस्ट सर्कुलेट, शेयर या लाइक न करें. अगर आपकी नजर में ऐसी कोई पोस्ट आती है तो उसके बारे में webpro@crpf.gov.in पर जानकारी दें. 
बता दें, इससे पहले सेना और सीआरपीएफ ने एडवाइजरी जारी करके कहा था कि इस निराशाजनक और दर्दनाक हालात में शहीदों के परिवार की रोने-बिलखने वाली तस्वीरों को दिखाने से परहेज किया जाए, क्योंकि आतंकवादी यही चाहते हैं कि देश में दहशत का माहौल बने. ऐसी तस्वीरें आतंकवादियों का दुस्साहस बढ़ाती हैं. सीआरपीएफ ने मीडिया से अपील करते हुए कहा था कि आधिकारिक रूप से पुष्टि होने तक शहीद कर्मियों के नाम फ्लैश न किए जाएं. सेना और सीआरपीएफ ने मीडिया से एडवाइजरी का पालन करने का अनुरोध  किया है
इससे पहले सरकार ने मीडिया को सचेत किया था. आतंकी हमले की कवरेज का संज्ञान लेते हुए केंद्र सरकार ने निजी टीवी चैनलों को आगाह किया था. सरकार की तरफ से सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने जम्मू कश्मीर के पुलवामा में गुरुवार को हुए आतंकवादी हमले की पृष्ठभूमि में सभी टीवी चैनलों से ऐसी सामग्री पेश करने से बचने को कहा है, जिससे हिंसा भड़क सकती हो अथवा देश विरोधी रुख को बढ़ावा मिलता हो. 
मंत्रालय की ओर से जारी परामर्श में कहा गया था, हालिया आतंकवादी हमले को देखते हुए टीवी चैनलों को सलाह दी जाती है कि वे ऐसी किसी भी ऐसी सामग्री के प्रति सावधान रहें जो हिंसा को भड़का अथवा बढ़ावा दे सकती हैं अथवा जो कानून व्यवस्था को बनाने रखने के खिलाफ जाती हो या देश विरोधी रुख को बढ़ावा देती हो या फिर देश की अखंडता को प्रभावित करती हो.'
NDTV khabar

निजी चैनल के बैनर को लेकर रवीश ने की टिप्पणी, कहा- रवीश का टाइम कभी खत्म नहीं होने वाला

उन्होंने कहा कि रवीश का टाइम का खत्म नहीं हो सकता है. आपको हजारों ईनाम मिल जाएंगे. आपकी टीआरपी सौवें माले पर चढ़ जाएगी तब भी रवीश की जरूरत रहेगी.

नई दिल्ली: 
ENBA अवॉर्ड शो के दौरान एनडीटीवी के रवीश कुमार ने माहौल में जहर फैलाने वाले मीडियाकर्मियों को लेकर विशेष टिप्पणी की. उन्होंने कहा कि हमें हमेशा इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि हम समाज में जहर न घोलें. उन्होंने इस दौरान एक निजी न्यूज चैनल के उस बैनर को लेकर भी टिप्पणी की जिसमें लिखा था कि 'रवीश का टाइम अब नहीं रहा प्राइम'. उन्होंने कहा कि रवीश का टाइम कभी खत्म नहीं हो सकता है. आपको हजारों इनाम मिल जाएंगे. आपकी टीआरपी सौवें माले पर चढ़ जाएगी तब भी रवीश की जरूरत रहेगी. पत्रकारिता में आम आदमी हमेशा किसी रवीश जैसे को
ढूंढेगा. गौरतलब है कि शनिवार को NDTV इंडिया को बेस्ट न्यूज चैनल ऑफ द ईयर के अवॉर्ड से सम्मानित किया गया है. ENBA अवॉर्ड्स 2018 में इसकी घोषणा की गई. इस मौके पर NDTV इंडिया के रिपोर्टर सौरभ शुक्ला को यंग प्रोफेशनल ऑफ द ईयर (एडिटोरियल हिंदी) चुना गया. NDTV इंडिया की तरफ से यह पुरस्कार लेने के लिए रवीश कुमार के साथ-साथ NDTV इंडिया की पूरी टीम मौजूद थी.
इस मौके पर रवीश कुमार ने इस अवॉर्ड के लिए चुने जाने पर सभी का धन्यवाद करते हुए कहा था कि हमें ऐसे माहौल में उन्माद की भाषा के इस्तेमाल से बचने की जरूरत है. इस पेशे का उसूल यही है कि हम काम करते हुए हमेशा इस बात का ध्यान रखें कि न तो खुद भावनाओं में बहेंगे और न ही किसी को उकसाएंगे. रवीश कुमार ने कहा कि आप सब जब यहां से जाएंगे तो अपने अपने ट्वीट को पढ़िएगा. मैं मजा खराब नहीं करना चाहता लेकिन आप चैनल वालों ने सच में हिन्दुस्तान का मजा खराब कर दिया है. जो भाषा और जिस तरह से काम चल रहा है पिछले पांच साल से आज या कल जब कोई दस साल बाद यू-ट्यूब के तहखाने में जाकर ढूंढेगा कि इस समय कौन क्या कर रहा था तब पता चलेगा कि कोई एनडीटीवी भी था जो भीड़ नहीं बन रहा था. न हम भीड़ बन रहे थे न हम भीड़ बना रहे थे. उन्होंने कहा कि मैं भाषण नहीं दे रहा हूं. मैंनें पहले भी कहा कि आज टीवी का पर्दा जो है वह बहुत तरीकों की चुनौतियों से गुजर रहा है. बिजनेस की चुनौतियां हैं उसकी.
रवीश कुमार ने कहा कि जनता को आपसे बहुत उम्मीदें हैं. हम यूं ही घटना से पहले या घटना के बाद भी गांवों और घरों से जुड़े रहते हैं. हमें मालूम है कि उन घरों से आने वाले सीआरपीएफ के जवानों के मां-बाप पर क्या गुजरी है. हम इस घटना की भावना से नहीं बोल रहे हैं लेकिन उनकी तकलीफ को हमने लंबे समय से कवर किया है. इसलिए हम कहते हैं कि अगर आपके जज्बातों में ईमानदारी है तो अर्धसैनिक बल के पेंशन की लड़ाई लड़ लीजिए. वह ठेले वाले, टैंपू वाले, किसान और मजदूरों के घर से आते हैं. वह आ रहे हैं तीन मार्च को और अपनी-अपनी राष्ट्रभक्ति का इम्तिहान दे दीजिए. और ट्वीट करियेगा कि पीएम जी हम आपका भाषण बाद में सुन लेंगे लेकिन पहले आप इनको पेंशन दे दीजिए
उन्होंने आगे कहा कि रवीश का टाइम कभी खत्म नहीं हो सकता है. आपको हजारों अवॉर्ड मिल जाएंगे लेकिन कभी रवीश खत्म नहीं होगा. पत्रकारिता में हर आम आदमी कभी न कभी कोई न कोई रवीश ढूंढेंगे. मैं आपसे अनुरोध करता हूं कि हम आपस में यह जहर न घोलें और न अपनी आदत से जनता के बीच दर्शकों के बीच सनक की हवा की तेज करें. यह हमारी जिम्मेदारी है. उन्होंने ज्यूरी का शुक्रिया भी किया.



रक्षामंत्री पर RJD का हमला- मोदी चालीसा पढ़कर ‘मंत्री’ बनने वाले The Hindu के पत्रकार को ‘पत्रकारिता’ सिखा रहे हैं

8 फरवरी को देश के प्रतिष्ठित अखबार The Hindu ने अपने पहले पन्ने पर राफेल सौदे से जुड़ी एक खबर छापी और देखते ही देखते राजनीतिक गलियारों में हंगामा मच गया।
The Hindu के संपादक एन राम ने एक सरकारी दस्तावेज के हवाल से ये खुलासा किया गया कि प्रधानमंत्री कार्यालय अपने स्तर पर राफेल सौदे को अंजाम दे रहा था और इसकी जानकारी रक्षा मंत्रालय को नहीं थी। ऐसा करने से डील के लिए बनाई गई रक्षा मंत्रालय की टीम की स्थिति कमज़ोर हुई।
इस खुलासे के बाद सवाल उठ रहे हैं कि जब डिल करने के लिए रक्षा मंत्रालय की टीम थी फिर प्रधानमंत्री कार्यालय क्यों हस्तक्षेप कर रहा था? और अगर कर भी रहा था तो इसकी जानकारी रक्षा मंत्रालय की टीम को क्यों नहीं दी गई? क्या प्रधानमंत्री कार्यालय किसी को फायदा पहुंचाने के लिए खुद सौदे में शामिल हुआ? अगर खुद ही डिल करनी थी तो रक्षा मंत्रालाय की टीम को भंग क्यों नहीं किया?
इन सवालों के जवाब देने के बजाए मौजूदा रक्षामंत्री निर्मला सीतारमन ने The Hindu की रिपोर्ट पर सवालिया निशान लगा दिया है। रक्षामंत्री ‘द हिंदू’ और खुलासा करने वाले वरिष्ठ पत्रकार एन राम की नीयत पर ही सवाल खड़े कर रही हैं।
रक्षा मंत्री ने ख़बर छपने के फ़ौरन बाद ही इसपर सवालिया निशान लगाकर यह तो साफ़ कर दिया है कि वह इस मामले को हल्का करना चाहती हैं। लेकिन रक्षामंत्री के इन आरोपों का ‘द हिन्दू’ समूह के अध्यक्ष एन राम ने जवाब देकर उनके मंसूबे पर पानी फेर दिया है।
एन राम ने सीतारमण की आपत्तियों का जवाब देते हुए कहा, ‘यह ख़बर अपने आप में पूरी है। इसमें मनोहर पर्रिकर की टिप्पणी देने की ज़रूरत नहीं है क्योंकि उनकी भूमिका के बारे में कुछ नहीं कहा गया है। पर्रिकर की भूमिका की अलग जांच की ज़रूरत है।’
रक्षामंत्री निर्माला सीतारमन का वरिष्ठ पत्रकार एन राम की नीयत पर सवाल उठाए बहुत लोगों को पसंद नहीं आया है। पत्रकार उर्मिलश उर्मिल ने रक्षामंत्री के बयान की आलोचना करते हुए सोशल मीडिया पर लिखा है…
‘कैसा मज़ाक है! निर्मला सीतारमण अब एन राम जैसे यशस्वी संपादक को बता रही हैं कि पत्रकारिता कैसे होनी चाहिए! किस रिपोर्ट में किसकी टिप्पणी दर्ज होनी चाहिए और किसकी नहीं; रक्षामंत्री देश के एक बड़े संपादक की रिपोर्ट को खारिज करने के लिए यह सब कह रही हैं!
भाजपा वाले मेरी इस टिप्पणी पर बेवजह कुपित न हों! निर्मला जी विश्वविद्यालय-दिनों की हमारी परिचित हैं, उस दौर में अभी उनका भाजपा वालों से परिचय भी नहीं हुआ था! तब वह Freethinker थीं! अब उन्होंने Free होकर Think करना क्यों छोड़ दिया!’
राष्ट्रीय जनता दल ने भी रक्षामंत्री निर्मला सीतारमण के बयान की आलोचना की है। राजद ने अपने आधिकारिक ट्वीटर हैंडल से लिखा है ‘मोदी सरकार के मंत्री काम करके नहीं, मोदी चालीसा पढ़के मंत्री बनते और बने रहते हैं। कोई पत्रकारों को दलाल कहता है, कोई बाज़ारू तो कोई प्रेस्टीट्यूट! कोई वरिष्ठ पत्रकारों को ही काम सिखाने लगता है! अरे चापलूसी और मीडिया मैनेजमेंट छोड़िए, अब बचे हुए कुछ महीने ही सही, काम कर लीजिए!’

कश्मीरी छात्रों की मदद के लिए आगे आया सीआरपीएफ, मेरे फोन पर ट्रोल अटैक

आई टी सेल का काम शुरू हो गया है। मेरा, प्रशांत भूषण, जावेद अख़्तर और नसीरूद्दीन शाह के नंबर शेयर किए गए हैं। 16 फरवरी की रात से लगातार फोन आ रहे हैं। लगातार घंटी बजबजा रही है। वायरल किया जा रहा है कि मैं जश्न मना रहा हूं। मैं गद्दार हूं। पाकिस्तान का समर्थक हूं। आतंकवादियों का साथ देता हूं। जब पूछता हूं कि कोई एक उदाहरण दीजिए कि मैंने ऐसा कहा हो या किया हो तो इधर-उधर की बातें करने लगते हैं। उनसे जवाब नहीं दिया जाता है।

पुलवामा की घटना से संबंधित कुछ मूल प्रश्न हैं। राज्यपाल सत्यपाल मलिक ने कई चैनलों पर कहा है कि सुरक्षा में चूक हुई है। 2500 जवानों का काफिला लेकर नहीं निकला जाता है। हाईवे की सुरक्षा को लेकर जो तय प्रक्रिया है उसका पालन नहीं हुआ। अब इन लोगों को राज्यपाल से पूछना चाहिए, प्रधानमंत्री और गृहमंत्री से पूछना चाहिए कि इस पर आप क्या कहते हैं। यह सवाल कई लोगों के मन में हैं ।

 क्या अच्छा नहीं कि इसके बाद भी पूरा विपक्ष और जनता सरकार के साथ खड़ी है। कोई इस्जतीफा तक नहीं मांग रहा है। जब इतने लोग खड़े हैं तो हम जैसे दो चार नाम को लेकर अफवाहें क्यों फैलाई जा रही हैं। ताकि कोई सरकार से सवाल न करें? कोई प्रधानमंत्री मोदी से यह न पूछे कि शोक के समय आप किसी सरकारी कार्यक्रम में अपने लिए वोट कैसे मांग सकते हैं। आप झांसी में दिया गया उनका भाषण खुद सुनें। प्रधानमंत्री को राजनीति करने की छूट है मगर बाकी सबको नहीं।

गोदी मीडिया के ज़रिए सही सूचनाएं लोगों तक नहीं पहुंचने दी जा रही हैं। अर्ध सैनिक बलों को पता है कि उनकी बात करने वाला इस गोदी मीडिया में हमीं हैं। हमने ही उनके पेंशन से लेकर वेतन तक की मांग में उनका साथ दिया है। सीआरपीएफ और बीएसएफ का कमांडेंट जीवन लगा देता है मगर अपने ही फोर्स का नेतृत्व उसे नहीं मिलता। इस पर चर्चा हमने की है। क्या बीजेपी का अध्यक्ष कोई कांग्रेस का हो सकता है? तो किस हिसाब से युद्धरत स्थिति में तैनात सीआरपीएफ और बीएसफ का नेतृत्व आई पी एस करता है? सांसद और विधायक को पेंशन मिलती है, मगर हमारे जवानों को पेंशन क्यों नहीं मिलती है? यह सवाल मैं पहले से करता रहा हूं और इस वक्त भी करूंगा।

जुलाई 2016 में ब्रिटने में सर जॉन चिल्कॉट ने 6000 पन्नों की एक जांच रिपोर्ट दी थी। 12 खंडों में 26 लाख शब्दों से यह रिपोर्ट बनी थी। सात साल तक जांच के बाद जब रिपोर्ट आई तो नाम दिया गया द इराक इन्क्वायरी। सर चिल्कॉट को ज़िम्मेदारी दी गई थी कि क्या 2003 में इराक पर हमला करना सही और ज़रूरी था? यह उस देश की घटना है जिसने कई युद्ध देखे हैं। युद्ध को लेकर आधुनिक किस्म की नैतिकता और भावुकता इन्हीं यूरोपीय देशों से पनपी है।

उस वक्त ब्रिटेन में इराक युद्ध के खिलाफ दस लाख लोग सड़कों पर उतरे थे। तब उन्हें आतंकवाद का समर्थक कहा जाता था। ब्रिटेन द्वितीय युद्ध के बाद पहली बार किसी युद्ध में शामिल हुआ था। कहा जाता था कि सद्दाम हुसैन के पास मानवता को नष्ट करने वाला रसायनिक हथियार हैं। जिसे अंग्रेज़ी में वेपन ऑफ मास डिस्ट्रक्शन कहा जाता है। चिल्काट ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि इराक के पास रसायनिक हथियार होने के ख़तरों के जिन दावों के आधार पर पेश किया गया उनका कोई औचित्य नहीं था।
सर चिल्काट की रिपोर्ट इस नतीजे पर पहुंची है कि ब्रिटेन ने युद्ध में शामिल होने का फैसला करने से पहले शांतिपूर्ण विकल्पों का चुनाव नहीं किया। उस वक्त सैनिक कार्रवाई अंतिम विकल्प नहीं थी।

जब युद्ध हुआ था तब टोनी ब्लेयर को हीरो की तरह मीडिया ने कवर पेज पर छापा था। टोनी ब्लेयर की छवि भी मज़बूत और ईमानदार की थी। चिल्काट कमेटी ने लिखा कि ब्लेयर ने एक मुल्क के लाखों लोगों को मरवाने के खेल में शामिल होने के लिए अपने मंत्रिमंडल से झूठ बोला। अपनी संसद से झूठ बोला। जब यह रिपोर्ट आई तब लेबर पार्टी के नेता जेर्मी कोर्बिन ने इराक और ब्रिटेन की जनता और उन सैनिकों के परिवारों से माफी मांगी जो इराक युद्ध में मारे गए या जिनके अंग कट गए।

पहले लंदन का एक अखबार है द सन। उसकी हेडलाइन थी ‘सन बैक्स ब्लेयर’। ब्लेयर के हाथ में सन है और सन अखबार ब्लेयर के समर्थन में है। जब चिल्काट कमेटी की रिपोर्ट आई तब इसी सन अखबार ने हेडलाइन छापी ‘वेपन ऑफ मास डिसेप्शन’। हिन्दी में मतलब सामूहिक धोखे का हथियार। डेली मिरर अखबार ने तब जो कहा था वो दस साल बाद सही निकला। 29 जनवरी 2003 के अखबार के पहले पन्‍ने पर छपा था, ब्लेयर की दोनों हथेलियां ख़ून से सनी हैं। लिखा था ब्लड ऑन हिज़ हैंड्स- टोनी ब्लेयर।

हर देश की अपनी परिस्थिति होती है। बस आप इस कहानी से यह जान सकते हैं कि कई बार किसी अज्ञात मकसदों के लिए राष्ट्राध्यक्ष मुल्क को युद्ध में धकेल देते हैं। इसलिए किसी भी तरह के सवाल से मत घबराइये। सवाल देश विरोधी नहीं होते हैं। उससे सही सूचनाओं को बाहर आने का मौका मिलता है और जनता में भरोसा बढ़ता है। जनता भीड़ नहीं बनती है। युद्ध का फैसला भीड़ से नहीं बल्कि रणनीतिकारों के बीच होना चाहिए। युद्ध एक व्यर्थ उपक्रम है। इससे कोई नतीजा नहीं निकलता है।

कई जगहों पर कश्मीरी छात्रों को मारा जाने लगा है। क्या यह सही है? जो आतंकवादी मसूद अज़हर था उसे तो जहाज़ से छोड़ आए, कौन छोड़ कर आया आप जानते हैं, लेकिन जिनका कोई लेना देना नहीं उन्हें आप मार रहे हैं। सीआरपीएफ ने कश्मीरी छात्रों की मदद के लिए हेल्पलाइन नंबर जारी किया है। सीआरपीएफ के ट्वीटर हैंडल पर जाकर देखिए उसमें कहा गया है कि कहीं भी हों, हमसे संपर्क करें। क्या आपमें हिम्मत है कि सीआरपीएफ पर उंगली उठाने की? सलाम है सीआरपीएफ को।

इसलिए मुझे फोन करने से कोई लाभ नहीं। प्रधानमंत्री से पूछिए। सारे जवाब उनके पास हैं। आपस में ज़हर मत बांटिए। एकजुट रहिए। सारी बहस तर्क के आधार पर कीजिए। पाकिस्तान को सबक बेशक सीखाना चाहिए। हर हाल में सीखाना चाहिए मगर पहले नागरिक होने का सबक सीख लें तो बेहरत होगा। हम शोक में हैं। ठीक है कि सारा जीवन पूर्ववत चल रहा है। मगर ख़्याल आता है तो मन उदास होता है। संयम बनाए रखें। धूर्त नेताओं से सावधान रखें।
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ravish Kumar 

Saturday, February 16, 2019

बहुत शर्मनाक है कि जब भी कोई आतंकवादी घटना होती है तुरंत ही राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप का दौर शुरू हो जाता है।

 जम्मू में 44 जवान भाइयों की शहादत के बाद सियासी आरोप-प्रत्यारोप के शोर में असली मुद्दों का दबना लोकतंत्र के लिए ख़तरनाक़ होगा। मैंने ख़ुद अपने सैनिक भाई को ऐसे ही एक हमले में खोया है और इसलिए मैं जानता हूँ कि चार दिन के शोर के बाद जवान के परिवार में जो वीरानगी छाती है वह कितनी जानलेवा होती है। जवानों की शहादत का सियासी फ़ायदा उठाने वाले लोग अपना नाम चमकाने के बाद जवान की विधवा बीवी या बूढ़ी माँ का हालचाल तक नहीं पूछते। मैंने सारा सियासी तमाशा अपनी आँखों से देखा है, इसलिए आज मैं सवालों के ज़रिए अपना दुख और चिंता आप सभी से साझा करना चाहूँगा।

मेरा पहला सवाल आतंकवादियों से है। जवानों की हत्या करके ख़ुद को महान साबित करने की कोशिश करने वाले तुम लोग क्या साबित करना चाहते हो? क्या किसी की निर्मम हत्या करके तुम्हारे नापाक इरादे कामयाब हो जाएँगे? जो भारत को कमज़ोर समझ रहे हैं, उन्हें जान लेना चाहिए कि भारत भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद, अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ जैसे वीरों का देश है। कायराना हमलों से आतंक और डर का राज स्थापित करने में ये कभी सफल नहीं होगें।

मेरे कुछ सवाल नेताओं से हैं। आज आप जैसे नेताओं में से कितनों के बेटे सेना में काम कर रहे हैं? क्या सेना के जवानों को अच्छी सुविधाएँ तभी मिलेंगी जब नेताओं के सगे-संबंधी बहुत बड़ी संख्या में उन इलाकों में तैनात किए जाएँगे जहाँ कदम-कदम पर जान जाने का ख़तरा रहता है? किसान खेत में मरे और उसका बेटा बॉर्डर पर, ऐसा कब तक चलता रहेगा? नेता लोग एसी स्टूडियो में बैठकर वीर रस से भरी बातें करते हैं लेकिन जब बात सेना के जवानों को बुलेट-प्रूफ़ जैकेट, अच्छा खाना जैसी सुविधाएँ देने की हो तो वही नेता बगलें झाँकने लगते हैं। उल्टे जो इस पर सवाल उठाये उसे ही नौकरी से बाहर कर दिया जाता है। इस देश ने देखा है कि किस तरह शहीद के घर जाने वाले नेता के लिए एसी, सोफा आदि का इंतज़ाम किया गया और बाद में नेता के जाते ही सारी सुविधाएँ वापस ले ली गईं। हमें ऐसे नेताओं और ऐसी राजनीति से सतर्क रहने की जरूरत है। वो लोग देश के लिए बहुत घातक हैं जो सेना की निष्ठा और मेहनत को अपनी कामयाबी बताने लगते है और अपनी पीठ खुद ही थपथपाते हैं। सवाल है कि अगर कामयाबी आपकी तो पुलवामा जैसे हमलों में तंत्र की विफलता की नैतिक जिम्मेदारी किसकी?

आज पूरा देश शोक और ग़ुस्से की मनोदशा में है। हमें वीर जवानों की जान की हिफ़ाज़त के लिए ज़रूरी कदम उठाने के लिए सरकार पर नैतिक दबाव डालने के लिए कमर कस लेनी चाहिए। हम न तो भविष्य में जवानों पर हमलों के मामलों में किसी की लापरवाही बर्दाश्त करेंगे और न सियासी फ़ायदे के लिए लच्छेदार भाषण देने वालों को सेना की असली ज़रूरतों पर परदा डालने देंगे। आइए, हम अपने देश के जवानों के बलिदान को नमन करते हुए उनके अधिकारों के पक्ष में एकजुट होकर आवाज़ उठाएँ।

Friday, February 15, 2019

अर्ध सैनिक बलों को पूर्ण सैनिक का सम्मान मिले इसके लिए भी लड़े हम

सीआरपीएफ हमेशा युद्धरत रहती है। माओवाद से तो कभी आतंकवाद से। साधारण घरों से आए इसके जाबांज़ जवानों ने कभी पीछे कदम नहीं खींचा। ये बेहद शानदार बल है। इनका काम पूरा सैनिक का है। फिर भी हम अर्ध सैनिक बल कहते हैं। सरकारी श्रेणियों की अपनी व्यवस्था होती है। पर हम कभी सोचते नहीं कि अर्ध सैनिक क्या होता है। सैनिक होता है या सैनिक नहीं होता है। अर्ध सैनिक?

2010 में माओवादियों ने घात लगाकर सीआरपीएफ के 76 जवानों को मार दिया था। फिर ये अर्ध सैनिक बल पूर्ण सैनिक की तरह मोर्चों पर जाता रहा है। मन उदास है कि 40 जवानों की जानें गई हैं। परिवारों पर बिजली गिरी है। उन पर क्या गुज़र रही होगी, यह ख़्याल ही कंपा देता है। शोक की इस घड़ी में हम उनके बारे में सोचें।

सोशल मीडिया और गोदी मीडिया में हमले को लेकर हो रहा है, उसकी भाषा को समझना ज़रूरी है। उसकी ललकार में उसकी कुंठा है। जवानों और देश की चिन्ता नहीं है। वह इस वक्त ग़म में डूबे नागरिकों के गुस्से को हवा दे रहा है। इस्तमाल कर रहा है। गोदी मीडिया हमेशा ही उन्माद की अवस्था में रहा है। जवानों की शहादत गोदी मीडिया उन्माद के एक और मौक़े के रूप में कर रहा है।

उसकी ललकार के निशाने पर कुछ काल्पनिक लोग हैं। किसी ने कुछ कहा नहीं है फिर भी बुद्धिजीवी और कुछ पत्रकारों पर इशारा किया जा रहा है। क्या इस घटना में उनका हाथ है? ज़रा बताएं ये गोदी मीडिया कि कल के हमले में ये काल्पनिक लोग कैसे जिम्मेदार हैं, जिन्हें कभी लिबरल कहा जा रहा है तो कभी आज़ादी गैंग कहा जा रहा है।  क्या इनके लिखने बोलने सेना और अर्ध सैनिक बलों को फैसला लेने में दिक्कतें आ रही थीं? और इसी कारण से घटना हुई है?

कल इस घटना की खबर आने के बाद भी मनोज तिवारी रात 9 बजे एक कार्यक्रम में डांस कर रहे थे। अमित शाह कर्नाटक में सभा कर रहे थे। इनके ट्विट हैं। क्या ये गोदी मीडिया अमित शाह से पूछ सकता है कि क्यों कार्यक्रम रद्द नही किया? क्या उनसे पूछ सकता है कि कश्मीर में आपकी क्या नीति है, क्यों आतंकवाद पैर पसार रहा है?

जिनकी ज़िम्मेदारी है उनकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं? कहीं ऐसा तो नहीं कि इन आकाओं को बचाने के लिए गोदी मीडिया काल्पनिक खलनायक खड़े कर रहे है। जिसे सोशल मीडिया में हवा दी जा रही है। इस दुखद मौके पर देश के लोगों के बीच हम बनाम वो का बंटवारा किया जा रहा है। राज्यपाल सत्यपाल मलिक तो कई बार कह चुके हैं कि दिल्ली के मीडिया ने कश्मीर को खलनायक बनाकर माहौल बिगाड़ा है।

शहादत के शोक के बहाने गोदी मीडिया अपना और आपका ध्यान मूल बातों से हटा रहा है। उसमें हिम्मत नहीं कि सवाल कर सके। कल प्राइम टाइम में जम्मू कश्मीर के राज्यपाल सत्यपाल मलिक ने साफ-साफ कहा कि भारी चूक हुई है। काफिला गुज़र रहा था और कोई इंतज़ाम नहीं था।
क्या यह साधारण बात है? राज्यपाल मलिक ने कहा कि यही नहीं ढाई हज़ार जवानों का काफिला लेकर चलना भी ग़लत था। काफिला छोटा होना चाहिए ताकि उसके गुज़रने की रफ्तार तेज़ रहे। राज्यपाल ने यहां तक कहा कि काफिले के गुज़रने से पहले सुरक्षा बंदोबस्त की एक मानक प्रक्रिया है, उसका पालन नहीं हुआ।

आप गोदी मीडिया की देशभक्ति को लेकर किसी भ्रम में न रहें। जब किसान दिल्ली आते हैं तो यह मीडिया सो जाता है। जानते हुए कि इन्हीं किसानों के बेटे सीमा पर शहीद होते हैं। सोशल मीडिया पर गुस्सा निकालकर राजनीतिक माहौल बनाने वाले मिडिल क्लास के बच्चे जवान नहीं होते हैं। 13 दिसंबर को अर्ध सैनिक बलों के हज़ारों पूर्व जवान अपनी मांगों को लेकर दिल्ली आए। यह मांगे उनके भविष्य को बेहतर और वर्तमान में मनोबल को बढ़ाने के लिए ज़रूरी थीं। सेवारत जवान मुझे लगातार मेसेज कर रहे थे कि हमारी बातों को उठाइये।

हमने उठाया भी और वे यह बात अच्छी तरह से जानते हैं। तब तो किसी ने नहीं कहा कि वाह आप इनके लिए लगातार लड़ते रहते हैं, इन्हें सब कुछ मिलना चाहिए क्योंकि यह देश के लिए जान देते हैं। आप खुद इनसे पूछिए कि किसी ने भी 13 दिसंबर के प्रदर्शन की चिन्ता की थी? आप पूर्व अर्धसैनिक बलों के संगठन के नेताओं से पूछ लें यह बात कि 13 दिसंबर की रात टीवी पर क्या चला था? उस दिन नहीं चल पाया तो क्या किसी और दिन चला था?

हाल ही में अर्ध सैनिक बलों के अफसर हाल ही में एक लड़ाई हार गए। वे अपने बल में पसीना बहाते हैं। जान देते हैं मगर अपने बल का नेतृत्व नहीं कर सकते। यह कहां का न्याय हुआ? क्या इस चूक के लिए कोई आई पी एस जवाबदेही लेगा? क्यों इन अर्ध सैनिक बलों का नेतृत्व किसी आई पी एस को करना चाहिए? अर्ध सैनिक बलों के जवान और अफसर जान दे सकते हैं, अपना  नेतृत्व नहीं कर सकते? क्या आपने इन सवालों को लेकर अर्ध सैनिक बलों के लिए किसी को लड़ते देखा है?

हम और आप तो शहीद कहते हैं लेकिन सरकार से पूछिए कि इन्हें शहीद क्यों नहीं कहती है? पूर्ण सैनिक की तरह लड़कर भी ये अर्ध सैनिक हैं और जान देकर भी ये शहीद नहीं हैं। 11 जुलाई 2018 को सरकार ने दिल्ली हाईकोर्ट में हलफनामा दिया था कि अर्धसैनिक बलों को शहीद का दर्जा नहीं दिया गया है। आप चैनल खोल कर देख लें कि कौन एंकर इनके हक की बात कर रहा है। इन्हें पेंशन तक नहीं है। शहादत के बाद पत्नी और उसका परिवार कैसे चलेगा? इस पर बात होगी कि नहीं होगी?

पूर्व अर्ध सैनिक बलों के संगठन के नेतां रणवीर सिंह ने कहा है कि गुजरात में अर्ध सैनिक बलों के शहीदों के परिवार वालों को 4 लाख क्यों मिलता है? क्यों दिल्ली में एक करोड़, हरियाणा की सरकार 50 लाख देती ह? रणवीर सिंह ने कहा सहायता राशि के लिए एक नोटिफिकेशन होनी चाहिए। राज्यों के भीतर मुआवज़े( एक्स ग्रेशिया) को लेकर भेदभाव क्यों होना चाहिए? कोई कम क्यों दे और कोई किसी से ज़्यादा ही क्यों दें?

रणबीर सिंह ने कहा कि सिनेमा वाले आए तो टिकट पर जी एस टी कम हो गई, संसद में तालियां बजी और अर्ध सैनिक बल कब से मांग कर रहे हैं कि 
जीएसटी के कारण कैंटीन की दरें बाज़ार के बराबर हो गई हैं। उसे कम किया जाए। आज तक सरकार ने नहीं माना। अर्ध सैनिक बल इसी 3 मार्च को जंतर-मंतर फिर आ रहे हैं। उस दिन देख लीजिएगा कि गोदी मीडिया इनके हक की कितनी बात करता है।

प्राइवेट अस्तपाल में काम करने वाले एक हार्ट सर्जन ने मुझे लिखा कि हमला होना चाहिए। हम अस्सी फीसदी टैक्स देंगे। बिल्कुल उनकी इस भावना का सम्मान करता हूं मगर आए दिन उन्हीं के अस्तपाल में या किसी और अस्तपाल में मरीज़ों को लूटा जा रहा है, बेवजह स्टेंट लगा देते हैं, आई सी यू में रखते हैं, बिल बनाते हैं, उसी का विरोध कर लें। उसी को कम करवा दें और नहीं होता है तो देश की खातिर इस्तीफा दे दें। क्या दे सकते हैं?

इस हमले से पहले बजट में अगर सरकार ने वाकई 80 परसेंट टैक्स लगा दिया होता तो सबसे पहले यही डाक्टर साहब सरकार की निंदा कर रहे होते। मैं डाक्टर से नाराज़ भी नहीं हूं। ऐसी कमज़ोरी हम सभी में हैं। हम सभी इसी तरह से सोचते हैं। हमें सीखाया गया है कि ऐसे ही सोचें।

सब चाहते हैं कि सामूहिकता से जुड़ें। कुछ ऐसा हो कि सामूहिकता में बने रहे। मगर वो तर्क और तथ्य के आधार पर क्यों नहीं हो सकता। क्यों हमेशा उन्माद और गुस्से वाली सामूहिकता ही होनी चाहिए? मैं समझता हूं कि डाक्टर या ऐसी सोच वाले किसी के पास कई तरह की कुंठाएं होती हैं। कई तरह के अनैतिक समझौते से वे टूट चुके होते हैं। खुद से नज़र नहीं मिला पाते होंगे। ऐसे सभी को भी इस वक्त का इंतज़ार होता है। वे इस सामूहिकता के बहाने खुद को मुक्त करना चाहते हैं।

एक तरह से उनके अंदर की यह भावना ही मेरे लिए संभावना है। इसका मतलब है कि वे अंतरात्मा की आवाज़ सुन रहे हैं। बस उस आवाज़ को शोर में न बदलें। ख़ुद को बदलें। उनके बदलने से देश अच्छा होगा। जवानों के माता पिता को ईमानदार डाक्टर और इंजीनियर मिलेगा। बिल्कुल सुरक्षा से कोई समझौता नहीं होना चाहिए। कोई दुस्साहस करे तो बेझिझक जवाब दिया जाना चाहिए। हम खिलौने नहीं हैं कि कोई खेल जाए। मगर मैं यही बता रहा हूं कि गोदी मीडिया आपको खिलौना समझने लगा है। आप उसे खेलने मत दो।


नोट- मैं एक जवान से बात कर रहा हूं। पुलवामा हमले में शहीद का परिवार उससे संपर्क कर रहा है. उनके बच्चे इस जवान को अपना चाचा कहते हैं। आप इस बहादुर जवान की इंसानी मुश्किलें समझिएं। वह खूब रो रहा है कि अपने सीनियर के बच्चों को यह चाचा क्या जवाब दे। थोड़ा तो इंसान बनिए। कब तक आप उन्माद के बहाने भीड़ का सहारा लेते रहेंगे। 

Thursday, February 14, 2019

औसत होते हिन्दी के अख़बारों में ग़ायब होते पत्रकारों के नाम -हिन्दुस्तान की समीक्षा





प्रमुख संवाददाता, मुख्य संवाददाता, विशेष संवाददाता, वरिष्ठ संवाददाता, कार्यालय संवाददाता, हिन्दुस्तान ब्यूरो, हिन्दुस्तान टीम और एजेंसियां।
 
अगर आप हिन्दी अख़बार हिन्दुस्तान पढ़ेंगे तो 85 से अधिक छोटी बड़ी ख़बरों में पत्रकारों के नाम की जगह उनके विचित्र पदनाम मिलेंगे। आप पद का नाम दे रहे हैं, पदभार वाले का नाम नहीं दे रहे हैं। ऐसी नीति सिर्फ सामंती विवेक की पैदाइश हो सकती है। वैसे कोई हिन्दी में फेल हुआ हो तो बता दे कि प्रमुख संवाददाता और मुख्य संवाददाता में क्या अंतर होता है? यही बता दे कि प्रमुख और मुख्य में क्या अंतर होता है?

हर अखबार की अपनी बाइलाइन नीति होती है। पर यह कैसा बेकार अख़बार है कि 85 से अधिक ख़बरों में सिर्फ चार लोगों को बाइलाइन मिली है। अगर बाइलाइन के लिए ख़बरों का विशेष होना ही पैमाना है तो सॉरी, ये चार ख़बरें भी वैसी कुछ ख़ास नहीं हैं। मृत्युजंय मिश्रा, सौरभ शुक्ला, हेमंत पाण्डेय और मदन जैड़ा को बधाई। उन्हें हिन्दुस्तान में बाइलाइन मिली है।

दिल्ली के होटल में आग की ख़बर को लीजिए। अख़बार ने पूरे पन्ने पर इसे छापा है। फिर भी इस ख़बर में किसी रिपोर्टर का नाम नहीं है। इंडियन एक्सप्रेस में इसी आग वाली ख़बर में आनंद मोहन जे, महेंद्र सिंह मनरल और सौरव रॉय बर्मन को संयुक्त रूप से बाइलाइन मिली है। पहले पन्ने पर आग से ही संबंधित एक और ख़बर में आस्था सक्सेना और सौम्या लखानी को संयुक्त रूप से बाइलाइन मिली है। भीतर भी इसे पूरे पन्ने पर जगह मिली है। इसमें एक और संवाददाता का नाम है अभिनव राजपूत। यानी इस घटना को कवर कराने के लिए एक्सप्रेस ने छह संवाददाता लगाए। उनके नाम भी बताए। उनका पदनाम नहीं बताया।

हिन्दुस्तान की तरफ से भूत कवर कर रहा था कि प्रेत कवर कर रहा था, पता ही नहीं चलेगा। क्योंकि एक खबर में प्रमुख संवाददाता लिखा है तो भीतर के पन्ने पर कार्यालय संवाददाता और मुख्य संवाददाता लिखा है। क्या एक्सप्रेस के संपादक किसी और स्कूल से पत्रकारिता पढ़ कर आए हैं जो उन्हें बाइलाइन की समझ नहीं है? 

मान लेते हैं कि हिन्दुस्तान में बाइलाइन की नीति बहुत सख़्त हैं। कोई बड़ी ख़बर होगी तभी मिलेगी। जिसमें पत्रकारिता नज़र आए, रिपोर्टर का जोखिम नज़र आए तो नाम मिलेगा। तो अखबार  के संपादक बताए कि उसके यहां कब ऐसी ख़बर हुई है। बाइलाइन वाली ख़बरें क्यों नहीं होती हैं? क्या यह भयावह नहीं है कि 22 पन्ने के अखबार में सिर्फ चार ख़बरों में बाइलाइन है। क्या पूरे अख़बार में संवाददाताओं ने अपनी तरफ़ से कुछ भी ख़ास नहीं किया? कहीं चैनलों की तरह अख़बार में रिपोर्टिंग तो बंद नहीं कर दी गई है। सब कुछ डेस्क पर तो नहीं लिखा जा रहा है।

मैंने हिन्दुस्तान अख़बार को सैंपल के तौर पर लिया है। दूसरे हिन्दी अख़बारों की भी समीक्षा करूंगा। पाठक को अपने अख़बार से औसत की जगह धारदार पत्रकारिता की मांग करनी चाहिए। मैं हिन्दुस्तान के संपादक को सामने से बोल सकता हूं कि सॉरी सर, आपके अख़बार की पत्रकारिता बेहद औसत है। कुछ कीजिए। इसमें कोई बुराई नहीं है। वे कुछ करेंगे तो सबका भला होगा। ऐसा लगता है कि तीस हज़ारी कोर्ट के बाहर किसी ने दस रुपये में टाइप करा कर अख़बार छाप दिया हो। हम सब इसी हिन्दी के पाठक और पत्रकार हैं। अगर इसे ख़त्म होने से नहीं बचाएंगे तो हम भी नहीं बचेंगे।

संपादकों को भी कभी कभी झकझोरना पड़ता है। उन्हें बुरा लगेगा। वे आहत होंगे मगर मुझे इससे कोई दिक्कत नहीं है। कई बार काम के झोंक में पता नहीं चलता कि क्या हो रहा है। जब दूसरा बताता है तो ध्यान टूटता है। संपादक खुद अपने अख़बार को पढ़ें। क्या वे वाकई सबसे पहले अपना अख़बार पढ़ते होंगे या हिन्दू, टेलिग्राफ या एक्सप्रेस की ख़बरें देखते होंगे?  कब तक हिन्दी का संपादक सपा बसपा का विश्लषण कर एक्सपर्ट बनते रहेंगे।

क्या यह पूछना गुस्ताखी होगी, मेरा अहंकार माना जाएगा कि पिछले छह महीने में हिन्दुस्तान के संपादक रहते हुए शशि शेखर जी ने पनामा पेपर्स, जज लोया, एन राम की रफाल जैसी कितनी ख़बरें की या करवाईं ? ये नाइंसाफी उन्हीं के साथ नहीं, हम सब के साथ होनी चाहिए। सारे संपादकों से उनका नाम लेकर पूछा जाना चाहिए जो न्यूज़ रूम चलाते हैं।

ख़बर भी धारदार हो और हर रिपोर्टर को नाम मिलना चाहिए। प्रमुख और मुख्य संवाददाता के बोगस अंतर की प्रथा को समाप्त कर दिया जाना चाहिए। जब आप रूटीन ख़बर में विशेष संवाददाता ही लिख रहे हैं तो नाम दे दीजिए। विशेष हटा दें ताकि पाठक को भी पता चले कि इसमें विशेष कुछ भी नहीं है। नाम देने से जवाबदेही आती है। संवाददाताओं के बीच प्रतिस्पर्धा बढ़ती है। हर हिन्दी अख़बार के न्यूज़ रूम में बहस होनी चाहिए।

हम हिन्दी के पत्रकारों ने संपादकों की सामंती प्रवृत्ति को ज़्यादा ही स्वीकार कर लिया है। व्यक्तिगत लाभ के लिए बड़े पैमाने पर सबको नुकसान पहुंचा दिया है। मैं नहीं मान सकता कि हिन्दुस्तान अख़बार में बेजोड़ पत्रकार नहीं होंगे। अगर नहीं है तो फिर काबिल पत्रकारों को खोजा जाना चाहिए। हिन्दी पत्रकारिता में ख़बरों की स्पर्धा की बहुत ज़रूरत है। ज़्यादातर अख़बार रूटीन हो गए हैं। जबकि इनके पास अभी भी संवाददाताओं की टीम होती है। तमाम संकटों के बीच पत्रकार तो पत्रकारिता करना चाहता ही है, बशर्ते करने दिया जाए।

कार्टून कैरेक्टर की भाषा बोल रफाल विवाद पर लीपापोती कर गई सीएजी

 “TR2” million €, “TR5” million €,  “TR7” million €,  “ST11” M€,“ST12” M€. , “AZ8” M€, “ASN” M€,“IS1” M€, “T” million €,` “XXZ”crore, “TIK” billion €. , ` “E(+)” crore ,` “H(+)” crore, ` “E” crore।

आम तौर पर गर्र-गुर्र जैसी लगने वाली ऐसी भाषा कार्टून के कैरेक्टर बोलते हैं। मगर यह भारत के सीएजी की भाषा है। इसी भाषा में सीएजी राजीव महर्षि ने भारत की जनता को रफाल विमान का हिसाब समझा दिया है। ये वो भाषा है जिसे अल्बर्ट आइंसटीन भी समझने में अलबला जाएं।

सीएजी में राजीव महर्षि के पूर्वज विनोद राय ने 2 जी घोटाले में करीब पौने दो लाख करोड़ का आंकड़ा दे दिया था। आज तक यह रकम न साबित हुई और न बरामद हो सकी। विनोद राय अब नेपथ्य में जा चुके हैं ताकि सामने आने पर लोग इस सवाल को लेकर घेर न लें।

आज यानी 13 फरवरी को सीएजी ने रफाल विमान मामले में अपनी ऑडिट रिपोर्ट संसद में रख दी। कार्टून कैरेक्टर की भाषा में दाम समझाने की वजह ये बताई है कि 6 फरवरी 2019 को रक्षा मंत्रालय ने पत्र भेजा है कि यूपीए के समय की शर्तों के अनुसार डील से संबंधित कुछ बातें नहीं बतानी हैं। इसके पहले 15 जनवरी 2019 को भी रक्षा मंत्रालय का पत्र आया था कि पेरिस डील के अनुसार कुछ बातो को नहीं बता सकते।

सोचिए 6 फरवरी तक रक्षा मंत्रालय बता रहा है कि डील को लेकर कीमतों के बारे में नहीं बताना है। 13 फरवरी को रिपोर्ट संसद में रखी जाती है। आप चाहें तो अनुमान लगा सकते हैं कि यह सब मैनेज किए जाने की निशानी है या सीएजी आखिरी वक्त तक काम करती है। वैसे मंत्री लोग ही अलग अलग चरणों में दाम बता चुके थे।

मार्च 2016 में हिन्दुस्तान एयरनोटिक्स लिमिटेड से हॉक Mk 132 AJT एयरक्राफ्ट की ऑडिट रिपोर्ट में कीमतों का विस्तार से ब्यौरा है। मार्च 2015 सीएजी रिपोर्ट में रूस से नई पीढ़ी के MiG29K की ख़रीद की ऑडिट में भी कीमतों का पूरा ब्यौरा है। मिग विमान की खरीद में दाम बताने की शर्त नहीं है। रफाल की डील में दाम बताने की शर्त है। जबकि मिग भी कम बेहतरीन विमान नहीं है।

सीएजी की रिपोर्ट में लिखा है कि दास्सों एविएशन और रक्षा मंत्रालय के बीच 15 साल जो बातचीत चली आ रही थी, उसे मार्च 2015 में रद्द कर दिया गया। फिर रक्षा मंत्रालय सीएजी को 6 फरवरी 2019 के रोज़ पत्र क्यों भेजता है कि पुरानी डील के अनुसार कुछ बातें नहीं बता सकते। पुरानी डील तो रद्द हो चुकी थी। क्या सीएजी ने रक्षा मंत्रालय के भेजे पत्र बिना प्रश्नों के स्वीकार कर लिया?

इसके बाद सीएजी 2000 से मार्च 2015 के बीच की प्रक्रिया का ब्यौरा देती है। रक्षा मंत्रालय सात अलग-अलग श्रेणियों का फार्मेट बनाता है और दास्सों एविएशन से कहता है कि इसके अनुसार से भर कर बताएं कि पूरी प्रक्रिया की लागत कितनी होगी। दास्सों ने इस फार्मेट के अनुसार लागत नहीं बताती है। सीएजी इस बात की आलोचना करती है लेकिन सवाल नहीं उठाती है कि दास्सों के साथ कड़ाई क्यों नहीं की गई?

करार रद्द होने का दूसरा कारण बताया जाता है। पहला, हिन्दुस्तान एयरोनोटिक्स लिमिटेड ने 108 विमान बनाने में मानव घंटे की सही गणना नहीं की। दूसरा दास्सों ने कहा कि भारत में बनाने का लाइसेंस तो दे देंगे मगर कैसा विमान बनेगा इसकी गारंटी नहीं देंगे। इस बात पर बातचीत अटक जाती है और फिर टूट भी जाती है।

इस बीच जुलाई 2014 में यूरोफाइटर बनाने वाली कंपनी 20 प्रतिशत कम दाम पर पेशकश करती है। रक्षा मंत्रालय ने सीएजी को बताया कि एक तो यूरोफाइटर की कंपनी बिना मांगे प्रस्ताव लेकर आ गई और दूसरा उनके प्रस्ताव में भी कमियां थीं। क्या कमियां थीं इसका ज़िक्र नहीं है। ध्यान रहे कि क्षमता के पैमाने पर रफाल और यूरोफाइटर को समान रूप से बेहतर पाया गया था।

लेकिन कमियां तो दास्सों के प्रस्ताव मे भी थीं। न लाइसेंस दे रही थी और न ही गारंटी। मार्च 2015 में 15 साल से चली आ रही डील रद्द हो जाती है।

10 अप्रैल 2015 को पेरिस में प्रधानमंत्री मोदी और फ्रांस के तबके राष्ट्रपति ओलांद नई डील का एलान करते हैं। तय होता है कि बेहतर शर्तों पर डील होगी और मेक इन इंडिया पर ज़ोर होगा। क्या वाकई बेहतर शर्तों पर डील हुई? सीएजी की रिपोर्ट बताती है कि यह डील सिर्फ और सिर्फ दास्सों की शर्तों पर हुई। मेक इन इंडिया की शर्त का क्या हुआ, कुछ नज़र नहीं आया।

कायदे से पुरानी डील रद्द हो गई तो क्या नई खरीद के लिए टेंडर हुआ? इस पर सीएजी गोल कर गई है। 12 मई 2015 को इंडियन निगोशिएशन टीम का गठन होता है। ।

द हिन्दू और द वायर की रिपोर्ट में इसी इंडियन निगोशिएटिंग टीम के तीन सदस्यों के एतराज़ की खबर छपी थी। इन्होंने कहा था कि जो हो रहा है वह वित्तीय ईमानदारी की बुनियाद के ख़िलाफ है। उनके एतराज़ के बारे में सीएजी कुछ नहीं कहती है। उस नोट का भी ज़िक्र नहीं है। लगता है कि रिपोर्ट सीएजी नहीं, रक्षा मंत्रालय बनवा रहा है।

इंडियन निगोशिएटिंग टीम के सदस्यों का एतराज़ था कि डील से भ्रष्टाचार विरोधी शर्तों को क्यों हटवाया गया। 2012 में जब कुछ शिकायतें आईं थी तब  रक्षा मंत्री को स्वतंत्र एजेंसी से जांच करवानी पड़ी थी कि भ्रष्टाचार विरोधी शर्तों का पालन हो रहा है या नहीं। सीएजी ने लिखा है। नई डील में तो ये शर्त ही हटा दी गई। क्यों भाई?

जबकि अगस्त 2016 में प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में सुरक्षा मामलों की कमेटी ने मंज़ूरी दी थी। मगर सितंबर 2016 में रक्षा मंत्रालय अपने स्तर पर बैठक कर भ्रष्टाचार विरोधी शर्तों को हटा देता है।  इसके बारे में भी सीएजी चुप है।

सीएजी ने कीमतों के मामले को जटिल बना दिया है। यह कहते हुए कि 126 विमान की कीमत की तुलना 36 विमान की कीमत से नहीं हो सकती है।
दास्सों एविएशन अपनी सालाना रिपोर्ट में रफाल विमान की कीमतों का ज़िक्र करती है। सीएजी ने उस कीमत से तुलना क्यों नहीं की?

वित्त मंत्री जेटली कहते हैं कि 2007 के करार और 2015 के करार के बीच तकनीकि बेहतर हो चुकी थी। इस लिहाज़ से हमने कम दाम में बेहतर तकनीकि से लैस विमान हासिल किए। ऐसे देखा जाए तो विमान यूपीए के टाइम से सस्ता पड़ा।

इस डील को विस्तार से कवर करने वाले पत्रकार अजय शुक्ला कहते हैं कि तकनीकि मामले में कोई बदलाव नहीं आया है। जेटली बातों को घुमा रहे हैं। उसी तकनीकि पर विमान खरीदा गया है जो यूपीए के समय था। इस लिहाज़ से पुरानी चीज़ नए दाम पर ली गई तो भारत को घाटा हुआ है।

सीएजी की रिपोर्ट भी साबित करती है कि बैंक गारंटी, संप्रभु गारंटी और एस्क्रो अकाउंट खोलने की बात से दास्सों ने मना कर दिया। भारत ने कहा भी था। तो भारत हर बार मना करने पर मजबूर क्यों रहा, इसका जवाब नहीं मिलता है।

एक दलील दी गई है कि बैंक गारंटी देने पर बैंक को चार्ज देना पड़ता जो कई मिलियन यूरो होता। मगर दास्सों जो रेट बताती है और भारतीय पक्ष जो रेट बताता है दोनों में काफी अंतर है। भारत ने क्या पंजाब नेशनल बैंक से पूछ कर रेट बताया था !

अब कहा जा रहा है कि बैंक गारंटी नहीं देने से दास्सों के मिलियन डालर बच गए। मीडिया रिपोर्ट में दास्सों को 500 मिलियन यूरो से अधिक का फायदा बताया गया है। अजय शुक्ला कहते हैं कि इन सब रियायतों को जोड़ लें तो दाम कम नहीं हुए हैं। भारत ने पहले की तुलना में अधिक दाम पर रफाल खरीदा।

सीएजी कहती है कि पुराने कीमतों से 2.8  प्रतिशत कम पर डील पर खरीद हुई है। अब सीएजी ने तो हिसाब कार्टून कैरेक्टर की भाषा में लगाया है तो हम कैसे समझें। क्या शर्तों में यह लिखा था कि करोड़ों में नहीं बताना है लेकिन 2.8 या 3.4 प्रतिशत में बता सकते हैं? मतलब मज़ाक करने की छूट है।

जेटली और उनके सहयोगियों ने कहा था कि यूपीए की तुलना में 9 से 20 प्रतिशत सस्ते दामों पर रफाल खरीदा गया। अब वे 2.5 प्रतिशत कम पर खुश हैं। मगर यह भी कह रहे हैं कि सीएजी कम बताती है। वैसे सीएजी ने 2 जी के मामले में क्यों इतना ज़्यादा बता दिया, जेटली जी ने विनोद राय से पूछा नहीं।

दो देशों के बीच समझौता था तो विवाद की स्थिति में फ्रांस ने किनारा क्यों कर लिया। कानूनी झगड़ा होगा तो मुकदमा भारत और दास्सों एविएशन के बीच होगा। भारत जीत गया और दास्सों ने हर्जाना नहीं दिया तो फिर भारत केस लड़ेगा। तब जाकर फ्रांस की सरकार पैसा दिलाने का प्रयास करेगी।


भारत की संप्रभुता और स्वाभिमान को दांव पर लगा कर रफाल विमान के लिए करार क्यों हुआ?

Wednesday, February 13, 2019

दौरा,दौरा, दौरा, दौड़ते ही रह गए प्रधानमंत्री, कार्यकाल का एक तिहाई इसी में कटा

प्रधानमंत्री ने अपने कार्यकाल का कितना हिस्सा यात्राओं में बिताया इसे लेकर स्क्रोल और दि प्रिंट ने दो रिपोर्ट की है। स्क्रोल की रिपोर्ट आप ज़रूर देखें। इसलिए भी कि किस तरह डेटा जर्नलिज़्म किया जा सकता है। 21 जनवरी को द प्रिंट की मौसमी दासगुप्ता की रिपोर्ट है और 12 फरवरी 2019 को विजयता ललवानी और नित्या सुब्रमण्यन की है। इन दोनों रिपोर्ट को पढ़ कर आप प्रधानमंत्री मोदी की यात्राओं के बारे में काफी कुछ समझ सकते हैं।

स्क्रोल की नित्या ने लिखा है कि प्रधानमंत्री जब भी दिल्ली से बाहर जाते हैं, प्रधानमंत्री कार्यालय की वेबसाइट पर एक ट्रिप यानी एक यात्रा के रूप में दर्ज करता है। सरकारी यात्रा है या ग़ैर सरकारी, इसे भी दर्ज करता है। लेकिन स्क्रोल इन यात्रों को अलग तरीके से गिनता है। 9 फरवरी 2019 को प्रधानमंत्री असम और अरुणाचल प्रदेश के दौरे पर गए। सरकारी वेबसाइट पर एक ट्रिप ही लिखा गया है मगर स्क्रोल ने इसे दो ट्रिप गिना है।

इस लिहाज़ से प्रधानमंत्री मोदी ने अपने कार्यकाल में 565 दिनों की यात्राएं कीं। कार्यकाल का एक तिहाई हिस्सा सरकारी और ग़ैर सरकारी कार्यक्रमों के लिए उड़ान भरने में बीता। पीएमओ की वेबसाइट के अनुसार इस जनवरी से प्रधानमंत्री की 12 ट्रिप यानी यात्राएं दर्ज हैं। लेकिन 4 जनवरी को असम-मणिपुर और 22 जनवरी की वाराणसी की यात्रा दर्ज नहीं हैं। 12 फरवरी की रिपोर्ट छपने तक प्रधानमंत्री मोदी 27 यात्राएं कर चुके हैं। इनमें से 13 यात्राओं के बारे में नहीं बताया गया है कि सरकारी हैं या ग़ैर सरकारी। जबकि बताया जाता है और बताया जाना चाहिए।

स्क्रोल ने प्रधानमंत्री कार्यालय को ईमेल भेज कर सवाल पूछा है कि इन य़ात्राओं का ख़र्च उठा रहा है। इतने साधारण से सवाल का जवाब नहीं मिलता मगर प्रधानमंत्री पारदर्शिता पर घंटा-घंटा लेक्चर दे जाते हैं। यही नहीं नित्या और विजयता की रिपोर्ट में बताया गया है कि वे इन दिनों सरकारी यात्रा के साथ बीजेपी के कार्यक्रम को भी शामिल कर लेते हैं। सरकारी कार्यक्रम में राजनीतिक भाषण देते हैं। उदाहरण सहित बताया है। इसलिए रिपोर्टर ने जानना चाहा है कि जब प्रधानमंत्री 3 जनवरी को पंजाब में इंडियन साइंस कांग्रेस उदघाटन के बाद गुरुदासपुर रैली के लिए जाते हैं तो उसका ख़र्चा कौन उठाता है। जवाब ही नहीं मिलता है।

इस तरह स्क्रोल की रिपोर्ट से आप जानते हैं कि 1 जनवरी 2019 के बाद 42 दिनों में प्रधानमंत्री 27 दिनों की यात्रा करते हैं। आपको याद होगा कि मैंने एक लेख लिखा था। मीडिया में रिपोर्ट आई थी कि नए साल में प्रधानमंत्री सौ सभाएं करेंगे। गोदाम तक का उद्घाटन किया गया मगर भाषण राजनीतिक भी दिया गया। अगर आचार संहिता लागू होने तक प्रधानमंत्री सौ सभाएं करेंगे तो हर सभा के आस पास के पांच घंटे ले लें तो प्रधानमंत्री अभी ही 20 दिन के बराबर रैलियां ही करते गुज़ार देंगे। काम कब करते हैं?

अब आते हैं दि प्रिंट की पत्रकार मौसमी दासगुप्ता की रिपोर्ट पर जो 21 जनवरी 2019 की है। इसके अनुसार प्रधानमंत्री हर चौथे दिन दिल्ली से बाहर गए। करीब करीब एक साल से ज़्यादा का समय सरकारी और ग़ैर सरकारी यात्राओं के कारण दिल्ली से बाहर रहे। क्या उन्होंने एक साल के समय के बराबर रैलियां और सभाएं करने में ही निकाल दिए?

मौसमी ने लिखा है कि 1700 दिनों के कार्यकाल में उन्होंने 370 दिनों में 322 घरेलु दौरे किए। दौरे को अंग्रेज़ी में ट्रिप्स लिखा है। 184 दिनों की विदेश यात्राएं कीं। 61 बार यूपी गए, 36 बार गुजरात और 22 बार बिहार। इनमें से 131 दिन बीजेपी की सभाओं और चुनाव प्रचार जैसे कार्यक्रमों में बाहर रहे। चुनाव आते ही उनके दौरे बढ़ जाते हैं। यूपी में ही 61 बार गए। मगर 27 बार नवंबर 2016 से मार्च 2017 के बीच गए। मार्च 2017 में यूपी में विधान सभा चुनाव हुए थे। उसी तरह 2015 के विधानसभा चुनाव के दौरान 17 बार गए। कुल मिलाकर बिहार 22 बार गए।

मौसमी ने लिखा है कि मोदी से पहले के प्रधानमंत्रियों के दौरे के बारे में इस तरह के आंकड़ें सार्वजनिक रूप से उपलब्ध नहीं हैं। मगर स्क्रोल वेबसाइट के लिए रिपोर्ट करते हुए विजयता और नित्या ने लिखा है कि आक्राइव के आंकड़ों से पता चलता है कि मनमोहन सिंह ने कभी ऐसा नहीं किया कि सरकारी कार्यक्रम के साथ ग़ैर सरकारी कार्यक्रम को मिला दिया। दोनों को अलग-अलग रखा।

जुलाई  2018 की स्क्रोल की रिपोर्ट में बताया गया है कि मनमोहन सिंह ने अपने पहले कार्यकाल में 368 दिनों की यात्राएं कीं। यानी इतने दिन वे दिल्ली से बाहर रहे होंगे। वे तो स्टार कैंपेनेर नहीं थे। न ही वक्ता थे। द प्रिंट के अनुसार मोदी ने 370 दिनों की यात्राएं की हैं। चूंकि स्क्रोेल ने एक दौरे में दो जगह गए तो दो गिना है इस लिहाज़ से 565 दिनों की यात्राएं हो जाती हैं।

इस रिपोर्ट को पढ़ने के बाद हिन्दी के पाठक के तौर पर ख़ुद से सवाल करें। हिन्दी में ऐसी रिपोर्ट क्यों नहीं आती है, ऐसे पत्रकार क्यों नहीं हैं। इसलिए कि हिन्दी की पत्रकारिता चाटुकारिता में ही व्यस्त हो गई है। तभी कहता हूं कि हिन्दी के अख़बार हिन्दी के पाठकों की हत्या कर रहे हैं। अख़बार पढ़ने का तरीका बदल दीजिए। वोट आप चाहे जिसे देते रहिए। कम से कम घटिया अख़बार और चैनल तो न देखें।

कहीं चुनाव के कारण काले धन की जमाख़ोरी तो नहीं हो रही है! मुद्रा का चलन नोटबंदी के पहले से भी ज़्यादा हो गया है। नवोदय की ख़बर देख लीजिए।

Tuesday, February 12, 2019

इविवि की सूचना के बाद भी प्रयागराज जाने पर अड़े अखिलेश यादव लखनऊ एयरपोर्ट से वापस

लखनऊ, जेएनएन। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्रसंघ समारोह में अखिलेश यादव के शामिल होने को लेकर सहमति न देने के बाद भी प्रयागराज जाने पर अड़े समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव लखनऊ के अमौसी एयरपोर्ट से वापस अपने आवास लौट गए हैं। लखनऊ जिला प्रशासन ने प्रयागराज प्रशासन की सूचना पर अखिलेश यादव के चार्टर्ड प्लेन को लखनऊ से टेक ऑफ नहीं करने दिया।
लखनऊ एयरपोर्ट पर अखिलेश यादव के रोके जाने की सूचना पर विधानमंडल के बजट सत्र में भी आज जमकर हंगामा हुआ। लखनऊ एयरपोर्ट के बाहर समाजवादी पार्टी के सैकड़ों कार्यकर्ता हंगामा करने लगे। अखिलेश यादव को पत्र के माध्यम से कल ही इलाहाबाद विश्वविद्यालय के रजिस्ट्रार ने सूचित किया था कि कार्यक्रम में किसी राजनेता को शिरकत करने की अनुमति नहीं है। इस बाबत अखिलेश यादव के निजी सचिव को पत्र भी भेजा गया था। इस कार्यक्रम को लेकर इलाहाबाद विश्वविद्यालय ने जिला प्रशासन प्रयागराज को भी आठ फरवरी को अवगत करा दिया था।
इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के रजिस्ट्रार ने कल ही अखिलेश यादव को सूचना दे दी थी। छात्रसंघ के कार्यक्रम में शामिल होने की राजनेताओं को अनुमति नहीं है। प्रमुख सचिव गृह अरविंद कुमार ने बताया कि प्रयागराज में शांति व्यवस्था के मद्देनजर पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को लखनऊ एयरपोर्ट पर रोका गया। प्रयागराज प्रशासन ने इस बाबत पत्र जारी किया था। इस पत्र की सारी जानकारी पूर्व मुख्यमंत्री को भी थी।
— Akhilesh Yadav (@yadavakhilesh) February 12, 2019 समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने योगी आदित्यनाथ सरकार पर बेहद गंभीर आरोप लगाया है। प्रयागराज में इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में छात्रसंघ शपथ ग्रहण समारोह में जाने की तैयारी में लखनऊ के अमौसी एयरपोर्ट पर पहुंचे अखिलेश यादव ने ट्वीट किया है कि उनको प्रयागराज जाने से रोका जा रहा है। मेरी फ्लाइट रोकी गई है।इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में छात्रसंघ के वार्षिक कार्यक्रम में शिरकत करने जा रहे समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव को लखनऊ हवाई अड्डे पर ही रोक दिया गया।
अखिलेश यादव का आरोप है कि उन्हें जबरन लखनऊ एयरपोर्ट पर रोका गया है और इलाहाबाद यूनिवर्सिटी नहीं जाने दिया जा रहा है। अखिलेश यादव करीब 11 बजे लखनऊ के चौधरी चरण सिंह इंटरनेशनल एयरपोर्ट पहुंचे थे। जहां पहुंचने के बाद उन्होंने आरोप लगाया है कि उनकी फ्लाइट को प्रयागराज जाने से रोका गया है। बिना किसी लिखित आदेश के मुझे एयरपोर्ट पर रोका गया। उन्होंने कहा कि पूछने पर भी स्थिति साफ करने में अधिकारी विफल रहे। छात्र संघ कार्यक्रम में जाने से रोकना का एक मात्र मकसद युवाओं के बीच समाजवादी विचारों और आवाज को दबाना है।
— Akhilesh Yadav (@yadavakhilesh) February 12, 2019 वह अब प्रयागराज के कार्यक्रम में जाने पर अड़े हैं। इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में छात्रसंघ का वार्षिकोत्सव है। यह कार्यक्रम 12 बजे से होना है। उन्होंने कहा कि एक छात्र नेता के कार्यक्रम से सरकार इतनी डर रही है कि मुझे लखनऊ के ही हवाई-अड्डे पर रोका जा रहा है। उन्होंने कहा कि योगी आदित्यनाथ बेवजह सरकार मेरे कार्यक्रम में अड़चन डाल रही है।

जब लोग टीवी की अदालत और असली अदालत में फ़र्क़ करना भूल जाते हैं तो लोकतंत्र ख़तरे में पड़ जाता है।

 ऐसा करना कितना ख़तरनाक़ हो सकता है इसका उदाहरण रवांडा रेडियो जैसे मामलों में दिख चुका है। इस चैनल का इस्तेमाल एक समुदाय का कत्लेआम करने के लिए लोगों को उकसाने के लिए किया गया था।

आज जब चैनलों पर फ़र्ज़ी वीडियो चलाकर बेकसूरों की ज़िंदगी को ख़तरे में डाला जा रहा है, एक्टिविस्टों को बदनाम किया जा रहा है और एक समुदाय को दूसरे समुदाय के खिलाफ खड़ा किया जा रहा है तब मीडिया की ज़िम्मेदारी तय करने का काम बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है। लोग भूल जाते हैं कि टीवी स्टूडियो वाली अदालत में जज से लेकर गवाह तक सभी नकली ही होते हैं।

मैं सभी देशवासियों से अपील करता हूँ कि वे मेरे ख़िलाफ़ दर्ज की जाने वाली चार्जशीट के मामले को जनता से जुड़े अहम मसलों को दबाने के काम में इस्तेमाल नहीं होने दें। यह सवाल नहीं दबना चाहिए कि हमारे देश में पिछले साल 12,000 किसानों को आत्महत्या क्यों करनी पड़ी। यह सवाल भी बार-बार पूछा जाना चाहिए कि जिस नोटबंदी के कारण एक करोड़ से ज़्यादा लोग बेरोज़गार हुए उसकी सफलता का ढिंढोरा पीटने की बेशर्मी सरकार कहाँ से लाती है। सवाल तो यह भी है कि साढ़े चार साल में अपने देश के कर्ज़ में 49% की बढ़ोतरी करने वाले मोदी जी को विकास पुरुष कैसे कहा जा सकता है। ऐसे तमाम सवालों के दब जाने पर लोकतंत्र का ज़िंदा रहना भी संभव नहीं रह पाएगा।

ख़बर नहीं बस ख़बरों के नाम पर अख़बार छपता है, हिन्दुस्तान छपता है


गर्त इतना गहरा हो गया है कि बात में तल्ख़ी और सख़्ती की इजाज़त मांगता हूं। आप आज का हिन्दुस्तान अखबार देखिए। फिर इंडियन एक्सप्रेस देखिए। एक्सप्रेस का पहला पन्ना बताता है कि देश में कितना कुछ हुआ है। घटनाओं के साथ पत्रकारिता भी हुई है। एक्सप्रेस के पहले पन्ने की बड़ी ख़बर है कि भूपेन हज़ारिका के बेटे ने भारत रत्न लौटा दिया है। रफाल डील होने से दो हफ्ता पहले अनिल अंबानी ने फ्रांस के रक्षा अधिकारियों से मुलाकात की थी। हिन्दुस्तान का पहला पन्ना बताता है कि भारत में दो ही काम हुए हैं। एक प्रधानमंत्री का भाषण हुआ और एक प्रियंका की रैली हुई है।

अख़बार ने प्रधानमंत्री के भाषण को इतने अदब से छापा है जैसे पूरा अखबार उनका टाइपिस्ट हो गया हो। आप दोनों अखबारों को एक जगह रखें और फिर पहले पन्ने को बारी बारी से देखना शुरू कीजिए। मेरे पास फिलहाल यही दो अखबार हैं, आप यही काम किसी और हिन्दी अखबार और अंग्रेजी अखबार के साथ कर सकते हैं। तब आप समझ सकेंगे कि क्यों मैं कहता हूं कि हिन्दी के अख़बार हिन्दी के पाठकों की हत्या कर रहे हैं। क्यों हिन्दी के चैनल आपकी नागरिकता के बोध को सुन्न कर रहे हैं।

हिन्दुस्तान की पहली ख़बर क्या है। प्रधानमंत्री का भाषण। 2030 तक दूसरी आर्थिक ताकत बनेंगे। 2019 में 2030 की हेडलाइन लग रही है। भाषण के पूरे हिस्से को उप-शीर्षक लगा कर छापा गया है। ऐसा लगता है कि कहीं कुछ छूट न जाए और हुज़ूर नाराज़ न हो जाएं इसलिए संपादक जी ख़ुद दरी पर बैठकर टाइप किए हैं। इस साल के शुरू होते ही प्रधानमंत्री सौ रैलियों की यात्रा पर निकल चुके हैं। इसके अलावा या इसी में सौ में उनके इस तरह के कार्यक्रम भी शामिल हैं, ये मुझे नहीं मालूम लेकिन जो नेता रोज़ एक भाषण दे रहा हो क्या उसका भाषण इस तरह से पहली ख़बर होनी चाहिए, कि आप एक- एक बात छापें।

इस बात का फैसला आप पाठक करें। अच्छा लगता है तब भी इस तरह से सोचें। बगल की दूसरी ख़बर में प्रियंका की ख़बर छपी है। उस ख़बर में भी निष्ठा का अतिरेक है। जैसा कि सभी टीवी चैनलों में था। भीतर के एक पूरे पन्ने पर प्रियंका गांधी की खबर है। उसमे कुछ है नहीं। पन्ना भरने के लिए ज़बरन बाक्स बनाए गए हैं और तस्वीरें छापी गई हैं। 

क्या बेहतरीन संवाददाताओं और संसाधनों से लैस किसी अख़बार को पहली ख़बर के रूप में यही देना चाहिए कि प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में शब्दश क्या-क्या कहा? एक रैली की झांकी छाप कर पन्ना भरना चाहिए? जिस ख़बर में विस्तार होना चाहिए वो संक्षिप्त है, जिसे संक्षिप्त होना चाहिए उसमें अनावश्यक विस्तार है। ख़बरों को इस तरह से छापा जाता है कि छप जाने दो। किसी की विशेष नज़र न पड़े। घुसा कर कहीं ठूंसा कर छाप दो। आप ख़ुद भी देखें। प्रियंका गांधी के कवरेज़ को। टीवी और अखबार एक साथ गर्त में नज़र आएंगे। कुछ छापने को है नहीं, बाक्स और फोटो लगाकर और झांकियां सजा कर पन्ना भरा गया है। क्या हिन्दी का मीडिया वाकई हिन्दी के पाठकों को फालतू समझने लगा है?

क्या हिन्दुस्तान अख़बार के पहले पन्ने पर इंडियन एक्सप्रेस की तरह भूपेन हज़ारिका के भारत रत्न लौटाने की ख़बर नहीं होनी चाहिए थी? उनके बेटे ने नागरिकता संशोधन विधेयक के विरोध में ये सम्मान लौटा दिया है। इसके बगल में रफाल डील की ख़बर है, वो हिन्दुस्तान क्या हिन्दी का एकाध अखबारों को छोड़ कोई छापने या लिखने की हिम्मत नहीं कर सकता। आप एक्सप्रेस के सुशांत सिंह की ख़बर देखिए। रफाल डील के एलान से दो हफ्ते पहले अनिल अंबानी ने फ्रांस के रक्षा अधिकारियों से मुलाकात की थी। राफेल पर सीएजी की रिपोर्ट पेश होगी इस सूचना को हिन्दुस्तान ने जगह दी है। लेकिन आपने सोचा कि अखबारों के पास वक्त होता है, काबिल रिपोर्टर होते हैं फिर क्यों हिन्दी के इतने बड़े अख़बार के पास रफाल जैसे मामले पर स्वतंत्र रिपोर्टिंग नहीं है?

यह उदाहरण क्यों दिया? कल ही आधी रात को लिखा कि न्यूज़ चैनलों में गिरावट अब गर्त में धंस गई है। चैनल अपनी ख़बरों को कतर-कतर कर संदर्भों से काट रहे हैं जिसके नतीजे में उनका नागिरकता बोध सूचना विहीन और दृश्यविहीन होता जा रहा है। हिन्दुस्तान जैसे अख़बार भी वही कर रहे हैं। मेरी बातों को लेकर भावुक होने की कोई ज़रूरत नहीं है। सख़्ती से सोचिए कि ये क्या अख़बार है, आप क्यों इस अखबार को पढ़ते हैं, पढ़ते हुए इससे आपको क्या मिलता है? यही सवाल आप अपने घर आने वाले किसी भी हिन्दी अख़बार को पढ़ते हुए कीजिए। हिन्दी के न्यूज़ चैनल और अख़बार हिन्दी के पब्लिक स्पेस में नाला बहा रहे हैं। आप नाले को मत बहने दें।

आखिर हिन्दी की पत्रकारिता इस मोड़ पर कैसे पहुंच गई? क्या हिन्दी के अख़बार बीजेपी और कांग्रेस के टाइपिस्ट हैं? क्या इनके यहां पत्रकार नहीं हैं? क्यों हिन्दुस्तान जैसे अख़बार में पहले पन्ने पर उसकी अपनी ख़बर नहीं है? क्या हिन्दुस्तान अख़बार के पाठक होने के नाते आपको पता चलता है कि रफाल मामले में कुछ हुआ है। क्या हिन्दुस्तान अख़बार के पाठक होने के नाते आप जान सके कि असम में क्या हो गया कि भारत रत्न का पुरस्कार लौटा दिया गया है।

आख़िर हिन्दी पत्रकारिता के इन स्तंभों में इतना संकुचन कैसे आ गया है? इस संस्थान के पत्रकार भी तो सोचें। अगर वे इस तरह से संसाधनों को अपने आलस्य से पानी में बहा देंगे तो एक दिन ख़तरा उन्हीं पर आएगा। मैं नहीं मानता कि वहां काबिल लोग नहीं होंगे। ज़रूर लिखने नहीं दिया जाता होगा। सब औसत काम ही करें इसलिए अख़बार एक फार्मेट में कसा दिखता है। अख़बार छप कर आता है, ख़बर छपी हुई नहीं दिखती है।

आप कहेंगे कि मैं कौन होता हूं शेखी बघारने वाला। हम टीवी वाले हैं। मैं टीवी के बारे में इसी निर्ममता से लिखता रहता हूं। हिन्दी के भले पचास ताकतवर चैनल हो गए हैं मगर किसी के पास एक ख़बर अपनी नहीं है जो प्रभाव छोड़े। मैं चाहता हूं कि एक पाठक के तौर पर हिन्दी के मीडिया संस्थानों की इस गिरावट को पहचानें। इतनी औसत पत्रकारिता आप कैसे झेल लेते हैं। क्या आपको अहसास है कि ये आपके ही हितों के ख़िलाफ है? संपादक की अपनी मजबूरी होगी, क्या आपकी भी औसत होने की मजबूरी है?

आखिर हिन्दी के कई बड़े अखबार किसी टाइपिस्ट के टाइप किए क्यों लगते हैं, किसी पत्रकार के लिखे हुए क्यों नहीं लगते हैं? पूरे पहले पन्ने पर अखबार की अपनी कोई ख़बर नहीं है। संवाददाताओं के नाम मिटा देने की सामंती प्रवृत्ति अभी भी बरकरार है। नाम है विशेष संवाददाता और ख़बर वही जिसमें विशेष कुछ भी नहीं। हिन्दी अख़बारों की समीक्षा नहीं होती है। करनी चाहिए। देखिए कि ख़बरों को लिखने की कैसी संस्कृति विकसित हो चुकी है। लगता ही नहीं है कि ख़बर है। कोई डिटेल नहीं। जहां प्रोपेगैंडा करना होता है वहां सारा डिटेल होता है। प्रधानमंत्री मोदी के भाषण को लेकर जो पहली खबर बनी है उसे भरने के लिए यहां तक लिखा गा है कि प्रधानमंत्री को कहां पहुंचना था और तकनीकि कारणों से कहां पहुंचे। हेलिकाप्टर कहां उतरा और कार कहां पहुंची।

मुझे पता है जवाब में क्या जवाब आएगा। फर्क नहीं पड़ता। मगर एक अख़बार के औसत से भी नीचे गिरने की व्यथा एक पाठक के तौर पर कहने का अधिकार रखता हूं। हिन्दी की पत्रकारिता आपके आंखों के सामने ख़त्म की जा रही है। मैं यह बात अख़बार के लिए नहीं कह रहा हूं। आपके लिए कह रहा हूं। चैनल और अख़बार आपको ख़त्म कर रहे हैं। अख़बार पढ़ने से पढ़ना नहीं हो जाता है। अख़बार को भी अलग से पढ़ना पड़ता है। क्योंकि उसी में लिखा होता है आपको अंधेरे में धकेल देने का भविष्य।

Monday, February 11, 2019

चैनल तो चुनाव के नाम पर टाइम काट रहे हैं, आप क्यों अपना टाइम काट रहे हैं

आज आपने कोई न कोई न्यूज़ चैनल देखा होगा। मैं एक सामान्य दर्शक की तरह नहीं सोच पाता हूं। नहीं समझ पाता कि एक दर्शक का सामान्य होना क्या होता है। टीवी ने आपको इतना सामान्य बना दिया है कि आपको इस टीवी के कारण आपके भीतर और लोकतंत्र के भीतर आ रहे संकटों का अहसास ही नहीं होता है। क्या आप कभी महसूस कर पाते हैं कि न्यूज़ चैनल किस तरह आपको सूचना विहीन बनाते जा रहे हैं। एक ही तरह के दृश्य बार-बार दिखाकर आपको दृश्यविहीन बनाते जा रहे हैं। दृश्यों के प्रति संवेदनहीन बनाते जा रहे हैं।
आप भाव शून्य होकर देखे जा रहे हैं। भले देखने का कुछ भी मतलब नहीं निकल रहा है फिर भी आप देखे जा रहे हैं। न्यूज़ चैनल अपने दर्शकों को गढ़ रहे हैं। दर्शक चैनलों को गढ़ रहे हैं। इनके आस-पास का लोकतंत्र मनोरोग से ग्रसित लोकतंत्र नज़र आता है। चैनल आपके नागरिक बोध को सुन्न कर रहे हैं। भाव-शून्य कर रहे हैं।
न्यूज़ चैनलों के पास कोई कंटेंट नहीं हैं। किसी के पास नहीं है। अपवाद के उदाहरणों को छोड़ दीजिए। सबके पास ईवेंट हैं। ईवेंट एक बहाना है। ईवेंट न हो तो असली ख़बरें दिखाने, उन पर मेहनत करने और एडिट करने में उनकी सांस फूल जाएगी। इसलिए जब ईवेंट नहीं होता है तो स्पीड न्यूज़ भड़भड़ाते हुए दौड़ता रहता है। रिपोर्टिंग का तंत्र ध्वस्त कर दिया गया है। जो थोड़ा बहुत बचा है वो ईवेंट के आस-पास ही सीमित है। आप खुद से ये बातें किसी भी चैनल को देखते हुए महसूस कर सकते हैं।
अगर आपको अपनी नागरिकता बचानी है, उसका बोध बचाना है तो चैनल देखने को लेकर ख़ुद के साथ सख़्ती कीजिए। जब किसी नेता का पांच मिनट से ज्यादा का भाषण आए तो बंद कर दीजिए। जब किसी चैनल पर फालतू सर्वे आए तो खोलते ही बंद कर दीजिए। ये सब इसलिए होता है कि वाकई इनके पास रिसर्च करने की हिम्मत नहीं बची है। रिसर्च करेंगे तो सूचनाएं आ जाएंगी, फिर सरकार की पोल खुल जाएगी। फिर सरकार गर्दन दबा देगी। तो अच्छा है महीनों सर्वे दिखाते रहो। पांच फालतू एक्सपर्ट बुलाकर, जिन्हें दिल्ली में शाम को कोई काम नही रहता, उनके साथ चर्चा करते रहो। चैनल वाले अपना टाइम काटते रहते हैं, आप क्यों अपना टाइम काटते हैं?
आज न्यूज़ चैनलों के लिए ईवेंट ही कंटेंट हो गया है। कभी कुंभ कभी मोदी की रैली तो कभी प्रियंका का रोड शो तो कभी हफ्तों पदमावती फिल्म पर कवरेज। ऐसे कंटेंट-विहीन चैनल संसार में कोई दर्शक दिन रात टहलते हुए क्या पाता होगा। मोदी युग के पांच सालों में आपने देखा कि जो चैनल रामलीला मैदान से दहाड़ रहे थे वो किस तरह मिमियाने लगे।
राष्ट्रवादी बहसों के नाम पर सांप्रदायिकता परोसी गई। अब वह सांप्रदायिकता खुराक मांग रही है। मिल नहीं रहा है। दो महीने तक चैनलों पर राम मंदिर का मुद्दा चला। बेरोज़गारी और मंदी से परेशान जनता ने जब भाव नहीं दिया तो अचानक मंदिर मंदिर करने वालों को ख़्याल आया कि अरे इलेक्शन आ रहा है। प्रभु राम को लेकर चुनाव में ओछी राजनीति न हो जाए इसलिए हम इसकी बात बाद में करेंगे। चैनलों ने इस मुद्दे को छोड़ दिया। उनसे पूछा नहीं कि हर बार चुनाव में ही राम मंदिर याद करते थे अबकी बार क्या ऐसा हो गया।
जब सुप्रीम कोर्ट ने असम में नेशनल रजिस्टर पूरा करने का आदेश दिया तो अमित शाह चिल्लाने लगे कि एक एक घुसपैठियों को बाहर करेंगे। मसला असम का लेकिन दहाड़ रहे हैं राजस्थान में। आज किसी को पूछने की हिम्मत नहीं है कि घुसपैठियों को लेकर इतनी ही गंभीरता थी तो फिर सुप्रीम कोर्ट को क्यों डांट लगानी पड़ी कि आप नेशनल रजिस्टर पूरा करने का काम ठीक से नहीं कर रहे हैं। सरकार को दिख गया कि भले अमित शाह पचास साल राज कर लें मगर जनता पांच मिनट में अपने सवालों को देख लेती है।
असम में जब सिटिजन अमेंडमेंट बिल का विरोध शुरू हुआ तो सरकार राज्य सभा में किनारा कर गई। असम की जनता इस समस्या को घुसपैठ को हिन्दू मुस्लिम में बांट कर नहीं देखना चाहती थी। दिल्ली की राजनीति ने उसे हिन्दू मुस्लिम में बांटा क्योंकि उसे यूपी और बिहार में लोगों को हिन्दू मुस्लिम में बांटना था। पहले कश्मीर को खुराक बनाया गया फिर असम को बनाने की कोशिश की। नतीजा क्या हुआ। भूपेन हज़ारिका के बेटे ने भारत रत्न ही ठुकरा दिया।
आप खुद एक बार अपने आप को दर्शक की तरह रखकर सोचिए। क्या आपको किसी भी चैनल से कोई कंटेंट मिल रहा है? इनकी टीआरपी के झांसे में मत आइये। ये सब फर्ज़ी आंकड़ेबाज़ी है। सरकार के नौकरी के आंकड़े की तरह। प्रियंका गांधी को लेकर आप टीवी के कवरेज़ देखिए। खुद यू ट्यूब में जाकर दोबारा सुनिए। देखें कि क्या इससे राजनीतिक समझ में कोई ख़ास इज़ाफ़ा होता है। ऐसा क्या आज नया बोला गया जो उनके राजनीति में आने के एलान के दिन नहीं बोला गया था।
बिल्कुल प्रियंका गांधी का कवरेज़ होना चाहिए। मगर अनवरत और दिन भर? क्या न्यूज़ चैनल अपने अपराध बोध से निकलना चाहते हैं कि मोदी मोदी बहुत कर लिया। प्रियंका का दिखाकर रखो ताकि बाद में कोई पूछे तो कह दिया जाए कि हमने तो प्रियंका का रोड शो घंटो कवर किया था। इससे अच्छा था सारे चैनल रफाल मामले में हिन्दू की रिपोर्ट पर एक बहस कर लेते। अगर हुज़ूर इजाज़त दे देते तो। पांच साल में जिस तरह से समाचार माध्यमों ने विपक्ष का मज़ाक उड़ाया है, उसे अपनी जगह से बेदखल किया है, वह प्रियंका गांधी के बीस घंटे के औसत कवरेज़ से माफ नहीं हो जाता है। फिर भी एक दर्शक के तौर पर सोचिए, कि आपको इस कवरेज़ से क्या मिला।
मैं यह क्यों कह रहा हूं। आए दिन लाखों लोग अपनी समस्याओं से जूझ रहे हैं। वे चैनलों से संपर्क कर रहे हैं। संवाददाताओं से संपर्क कर रहे हैं। पंजाब के शिक्षकों पर अजीब तरह के कांट्रेक्ट की शर्तें लाद दी गईं हैं। उत्तर प्रदेश में प्रधानमंत्री की सौभाग्य योजना से जुड़े 2000 इंजीनियरों को हटा दिया गया है। मोदी राज में अस्पताल कंडम हो गए। अस्पतालों में बीमार आदमी के साथ जो अमानवीय बर्ताव हो रहा है, वह अक्षम्य है। हर तरफ आवारागर्दी है। यह आवारागर्दी आपकी कीमत पर हो रही है। एक परीक्षा ढंग से नहीं हो पाती है, नेता हैं कि महान ही हो गए हैं।
अब न्यूज़ चैनल कबाड़ ही रहेंगे। दस साल से न्यूज़ चैनलों के कंटेंट की गिरावट की आलोचना हो रही है, गिरावट बढ़ती ही जा रही है। दस साल पहले अपने ब्लॉग पर एक कविता लिखी थी, टीवी साला गोबर का पहाड़ है। कुछ नहीं बदला और न अब कुछ बदलेगा। जनता को सतही सूचना दी जा रही है ताकि उसके भीतर नागरिकता का बोध न जागे। उसे इतना ही बताया जा रहा है कि कोई नेता उसे भीड़ और भगदड़ में बहा ले जाएं। चुनावों में आप सर्वे देखिए। फिर राय सुनिए। फिर सर्वे देखिए। फिर राय सुनिए। फिर सर्वे देखिए। फिर राय सुनिए। अस्पताल में डाक्टर न हो, कालेज में टीचर न हो तो गाय पालिए।
चैनल अब नहीं बदलेंगे,आप दर्शक ही ख़ुद को बदल कर देखिए। दिल्ली की हवा सांस लेने लायक नहीं रही। फेफड़े ख़राब हो रहे हैं। बच्चे बीमार पड़ते हैं। कोई दिल्ली छोड़ कर नहीं गया। कोई टीवी छोड़ कर नहीं जाएगा। ख़ुद से ज़्यादा मांगा कीजिए, मैं भी आपसे ज्यादा मांग रहा हूं। बात बस इतनी है।

प्रधानमंत्री मोदी ने भी 356 लगाकर विरोधी दल की सरकारें गिराई हैं

प्रधानमंत्री मोदी इस आधार पर भाषण की शुरूआत करते हैं कि जनता को सिर्फ वही याद रहेगा जो वह उनसे सुनेगी। उनका यकीन इस बात पर लगता है और शायद सही भी हो कि पब्लिक तो तथ्यों की जांच करेगी नहीं बस उनके भाषण के प्रवाह में बहती जाएगी। इसलिए वे अपने भाषण से ऐसी समां बांधते हैं जैसे अब इसके आर-पार कोई दूसरा सत्य नहीं है। लोकसभा में राष्ट्रपति के अभिभाषण के जवाब में उनका लंबा भाषण टीवी के ज़रिए प्रभाव डाल रहा था मगर इस बात से बेख़बर कि जनता जब तथ्यों की जांच करेगी तब क्या होगा

उनकी यह बात बिल्कुल ठीक है कि कांग्रेस के ज़माने में धारा 365 का बेज़ा इस्तमाल हुआ। राष्ट्रपति शासन लगाने के संवैधानिक प्रावधानों का इस्तमाल राजनीतिक दुर्भावना से सरकारें गिराने में होने लगा। लेकिन क्या यह भी सच नहीं कि उनके कार्यकाल में दो दो बार ग़लत तरीके से राष्ट्रपति शासन लगाया गया और कई बार राज्यपालों के ज़रिए वो काम कराया गया या वो भाषा बुलवाई गई जिसे किसी भी तरह से मर्यादा अनुकूल नहीं माना जाएगा।

लोकसभा में राष्ट्रपति शासन को लेकर खुद को महानैतिक बताते हुए उन्हें यह भी याद दिलाना चाहिए था कि मार्च 2016 में उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन क्यों लगा। जब उत्तराखंड हाईकोर्ट ने राष्ट्रपति शासन को ग़लत ठहराया तब उनकी सरकार सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने गई थी और वहां भी हार का सामना करना पड़ा था। अरुण जेटली तब भी ब्लॉग लिखा करते थे मगर आज के जितनी उनके ब्लाग की चर्चा नहीं होती थी। जेटली ने कितने शानदार तर्क दिए थे राष्ट्रपति शासन लगाने के हक में मगर अफसोस अदालत में नहीं टिक पाए। मगर आप पढ़ेंगे तो उसकी भाषा के प्रभाव में एक एक शब्द से हां में हां मिलाते चले जाएंगे। उत्तराखंड ने अपने फैसले में कहा था कि राष्ट्रपति शासन का फैसला कोई राजा का फैसला नहीं है जिसकी समीक्षा नहीं हो सकती है।

पाठकों को यह फैसला देने वाले उत्तराखंड हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस के एम जोसेफ के सुप्रीम कोर्ट में प्रमोशन को लेकर विवाद की खबरें फिर से पढ़नी चाहिए। उन्हें कई जगहों पर ज़िक्र मिलेगा कि राष्ट्रपति शासन पलटने के कारण सरकार जस्टिस के एम जोसेफ को सुप्रीम कोर्ट नहीं आने देना चाहती थी। मगर प्रधानमंत्री को भरोसा है कि लोग ये सब भूल चुके होंगे और वे जो कहेंगे अब उसे ही सत्य मान लेंगे।

क्या आपको याद है कि मोदी सरकार ने 26 जनवरी की आधी रात अरुणाचल प्रदेश में एक चुनी हुई सरकार बर्खास्त की थी? क्या गोदी मीडिया अपने चैनलों पर मोदी का लोकसभा में दिया गया भाषण चलाकर अरुणाचल में राष्ट्रपति शासन लगाने का तथ्य सामने रख सकता है? लोग तो भूलेंगे ही, मीडिया भी भुलाने में मदद करेगा तो प्रधानमंत्री का भाषण तथ्यहीन होते हुए भी शानदार नहीं लगेगा तो और क्या लगेगा।

आप भूल गए। 26 जनवरी की सुबह संविधान के जश्न की सलामी के लिए निकलने से 6 घंटे पहले राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी अरुणचल में राष्ट्रपति शासन लगाते हैं। प्रधानमंत्री मोदी कैबिनेट की सलाह पर। तमाम प्रवक्ताओं और वित्त मंत्री के ब्लाग के बाद भी सुप्रीम कोर्ट में केंद्र सरकार अपने फैसले का बचाव नहीं कर पाती है। सुप्रीम कोर्ट वापस 15 दिसंबर 2015 की स्थिति बहाल कर देती है।

क्या मोदी वाकई दिल्ली आकर दिल्ली की पुरानी बीमारी दूर कर रहे थे या उसका लाभ उठाकर अपनी मनमानी कर रहे थे? अरुणाचल प्रदेश में कांग्रेस के 16 बागी विधायक बीजेपी के 11 विधायक से मिलकर नया मुख्यमंत्री चुन रहे थे। क्या हम इतने भोले हैं कि मान लें कि बिना किसी दबाव और प्रलोभन के कांग्रेस के विधायक बीजेपी से मिलकर सरकार बना रहे थे और उनकी सरकार को दिल्ली में बैठी मोदी सरकार बर्खास्त कर रही थी?

उत्तराखंड और अरुणाचल प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लगाने के फैसले को मोदी सरकार सुप्रीम कोर्ट में बचा नहीं सकी। अदालत के फैसले में साफ साफ लिखा गया है कि संविधान का दुरुपयोग हुआ है। जम्मू कश्मीर में भी राष्ट्रपति शासन लगाया गया है। 

मोदी सरकार के दौर में राज्यपालों की भाषा से लेकर भूमिका संवैधानिक पवित्रता से नहीं भरी हुई थी। तथागत रॉय की भाषा को लेकर कितना विवाद हुआ है। कई मौके आए जब राज्यपालों ने अपनी हदें पार कीं और उसका बचाव करने के लिए कांग्रेसी राज की स्थापित अनैतिकताओं का सहारा लिया गया। गोवा, मणिपुर और मेघालय में सबसे बड़ी पार्टी को सरकार बनाने के लिए नहीं बुलाया गया।

बकायदा सुप्रीम कोर्ट ने मोदी सरकार के धारा 356 के ग़लत इस्तमाल करने पर सख़्त टिप्पणी की है। हां ये और बात है कि उन्हें अभी 55 साल राज करने का मौका नहीं मिला है। मगर यह सही बात है कि 55 महीने के शासन काल में तीन बार राष्ट्रपति शासन लगाए। जिनमें दो बार गलत साबित हुए। दोनों बार उन्होंने विपक्ष की सरकार गिराई।

प्रधानमंत्री मोदी जब भी भाषण दें तो एक बात का ख़्याल रखें। सुन लें मगर बाद में चेक ज़रूर कर लें। इससे आपको ख़ुद में भरोसा बढ़ेगा कि आप अपना काम ठीक से करते हैं। किसी पर यकीन करने से पहले चेक कर लेते हैं। प्रधानमंत्री को आप पर भरोसा है। यही कि आप अपना काम ठीक से नहीं करते हैं। उनके भाषण सुनने के बाद ताली ही बजाते रह जाते हैं और तथ्यों को चेक नहीं करते हैं।

आइए, आज हम इस विषय पर भी चर्चा करें कि गणतंत्र क्या है और क्या नहीं। इस पर बात करना ज़रूरी है क्योंकि देश का शासन अभी उनके हाथों में है जो गणतंत्र का असली मतलब जानते ही नहीं।

पहली बात तो यह है कि कुछ लोगों को लगातार मज़बूत बनाकर करोड़ों को कमज़ोर बनाते जाना गणतंत्र का कोई मूल्य नहीं है। अंबानी-अडानी का मुनाफ़ा बढ़ाने के लिए सरकारी कंपनियों को कमज़ोर करते जाना अपने देश को खोखला करने के सिवा और कुछ नहीं है। जहाँ संतोषी भात-भात कहते हुए मर जाती है, वहाँ नागरिकों के हितों पर चोट करते हुए चंद अमीरों की तिजोरी भरते जाना सामाजिक अपराध है। जब सरकार सरकारी कंपनियों के लिए बैटिंग करते समय जान-बूझकर हिट विकेट हो जाती है और प्राइवेट कंपनियों के लिए हर गेंद पर छक्के मारने लगती है तो समझ लीजिए कि मैच फ़िक्सिंग हो गई है।
दूसरी बात यह है कि सामाजिक न्याय के बिना गणतंत्र का कोई मतलब नहीं रह जाता। उच्च शिक्षा में आरक्षण का नया नियम उच्च शिक्षा में शिक्षण के क्षेत्र से एससी, एसटी और ओबीसी को बाहर करने का काम करेगा। जिन समुदायों ने अभी तमाम मुश्किलों का सामना करते हुए विश्वविद्यालयों में आना शुरू ही किया था, उनके लिए ऐसा नियम बनाना आंबेडकर के सपने के साथ कितना बड़ा धोखा है इसे बताने की ज़रूरत नहीं है।
तीसरी बात यह है कि संविधान में धर्मनिरपेक्षता की बात सिर्फ़ पन्ना भरने के लिए नहीं लिखी गई थी। इस मूल्य को समाज और राजनीति में लागू करना सभी की ज़िम्मेदारी है। जब भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अपने भाषणों से मुसलमानों में असुरक्षा पैदा करते हैं तो वे संविधान के मूल्यों की धज्जियाँ उड़ा रहे होते हैं। उन्हें ऐसा करते देना उन स्वतंत्रता सेनानियों और चिंतकों की स्मृति का अपमान करने जैसा है जिनके कारण हमारे संविधान में दुनिया के सबसे प्रगतिशील मूल्य शामिल किए गए।
चौथी बात यह है कि अभिव्यक्ति की आज़ादी छीनने की कोशिश करना गणतंत्र को डरतंत्र में बदलने की कोशिश करने जैसा है। आनंद तेलतुंबडे को गिरफ़्तार करने की कोशिश इसी साज़िश का हिस्सा है। पुलिस ने कल डीयू में आनदं पटवर्धन की डॉक्यूमेंट्री का प्रदर्शन नहीं होने दिया गया। ऐसी घटनाएँ गणतंत्र के सामने खड़े ख़तरों की तरफ़ इशारा करती हैं।
बातें तो कई हैं लेकिन अभी हमें एक चीज़ का ख़ास तौर पर ध्यान रखना है। हमें किसी भी हाल में उन लोगों को गणतंत्र का अपहरण करने से रोकना होगा जो अपने स्वार्थ के लिए लोगों के भरोसे के साथ खेलने से लेकर देश बेचने तक कुछ भी करने को तैयार रहते हैं। लड़ेंगे, जीतेंगे।

Sunday, February 10, 2019

किसके लिए रफाल डील में डीलर और कमीशनखोर पर मेहरबानी की गई

आज के हिन्दू में रफाल डील की फाइल से दो और पन्ने बाहर आ गए हैं। 
इस बार पूरा पन्ना छपा है और जो बातें हैं वो काफी भयंकर हैं। द हिन्दू की रिपोर्ट को हिन्दी में भी समझा जा सकता है। सरकार बार-बार कहती है कि रफाल डील में कोई भ्रष्टाचार नहीं हुआ है। वही सरकार एक बार यह भी बता दे कि रफाल डील की शर्तों में भ्रष्टाचार होने पर कार्रवाई के प्रावधान को क्यों हटाया गया? वह भी प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली रक्षा मामलों की मंत्रिमंडलीय समिति की बैठक में इसे हटाया गया।
क्या आपने रक्षा ख़रीद की ऐसी कोई डील सुनी है जिसकी शर्तों में से किसी एजेंसी या एजेंट से कमीशन लेने या अनावश्वयक प्रभाव डालने पर सज़ा के प्रावधान को हटा दिया जाए? मोदी सरकार की कथित रूप से सबसे पारदर्शी डील में ऐसा ही किया गया है। मोदी जी बता दें कि किस डीलर को बचाने के लिए इस शर्त को हटाया गया है?
हिन्दू अख़बार में अपने पहले पन्ने के पूरे कवर पर विस्तार से इसे छापा है। अगर सब कुछ एक ही दिन छपता तो सरकार एक बार में प्रतिक्रिया देकर निकल जाती। अब उसे इस पर भी प्रतिक्रिया देनी होगी। क्या पता फिर कोई नया नोट जारी कर दिया जाए। एन राम ने जब 8 फरवरी को नोट का आधा पन्ना छापा तो सरकार ने पूरा पन्ना जारी करवा दिया। उससे तो आधे पन्ने की बात की ही पुष्टि हुई। लेकिन अब जो नोट जारी हुआ है वह उससे भी भयंकर है और इसे पढ़ने के बाद समझ आता है कि क्यों अधिकारी प्रधानमंत्रा कार्यालय के समानांतर रूप से दखल देने को लेकर चिन्तित थे।
एन राम ने रक्षा ख़रीद प्रक्रिया की शर्तों का हवाला देते हुए लिखा है कि 2013 में बनाए गए इस नियम को हर रक्षा ख़रीद पर लागू किया जाना था। एक स्टैंडर्ड प्रक्रिया अपनाई गई थी कि कोई भी डील हो इसमें छूट नहीं दी जा सकती। मगर भारत सरकार ने फ्रांस की दो कंपनियों दास्सों और एमबीडीए फ्रांस को अभूतपूर्व रियायत दी।
रक्षा मंत्रालय के वित्तीय अधिकारी इस बात पर ज़ोर देते रहे कि पैसा सीधे कंपनियों के हाथ में नहीं जाना चाहिए। यह सुझाव दिया गया कि सीधे कंपनियों को पैसे देने की बजाए एस्क्रो अकाउंट बनाया जाए। उसमें पैसे रखे जाएं। यह खाता फ्रांस की सरकार का हो और वह तभी भुगतान करे जब दास्सो और एमबीडीए फ्रांस सारी शर्तों को पूरा करते हुए आपूर्ति करे। यह प्रावधान भी हटा दिया गया। ऐसा क्यों किया गया। क्या यह पारदर्शी तरीका है? सीधे फ्रांस की कंपनियों को पैसा देने और उसे उनकी सरकार की निगेहबानी से मुक्त कर देना, कहां की पारदर्शिता है।
एन राम ने लिखा है कि ऐसा लगता है कि सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से ये बातें छिपाई हैं। क्या सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को बताया है कि इस डील में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार और प्रधानमंत्री कार्यालय की भी भूमिका रही है? इस सवाल का जवाब सरकार से आ सकता है या फिर सुप्रीम कोर्ट से।
एन राम का कहना है कि बग़ैर ऊपर से आए दबाव के इन शर्तों को हटाना आसान नहीं है। बेवजह प्रभाव डालने पर सज़ा का प्रावधान तो इसीलिए रखा जाता होगा कि कोई ख़रीद प्रक्रिया में दूसरे चैनल से शामिल न हो जाए और ठेका न ले ले। एजेंट और एजेंसी का पता चलने पर सज़ा का प्रावधान इसीलिए रखा गया होगा ताकि कमीशन की गुंज़ाइश न रहे। अब आप हिन्दी में सोचें, क्या यह समझना वाकई इतना मुश्किल है कि इन शर्तों को हटाने के पीछे क्या मंशा रही होगी?
23 सितंबर 2016 को दिल्ली में भारत और फ्रांस के बीच करार हुआ था। इसके अनुसार दफ्तार रफाल एयरक्राफ्ट की सप्लाई करेगा और MBDA फ्रांस भारतीय वायुसेना को हथियारों का पैकेज देगी। इसी महीने में पर्रिकर की अध्यक्षता में रक्षा ख़रीद परिषद की बैठक हुई थी। इस बैठक में ख़रीद से संबंधित आठ शर्तों को बदल दिया गया। इनमें आफसेट कांट्रेक्ट और सप्लाई प्रोटोकोल भी शामिल हैं। आफसेट कांट्रेक्ट को लेकर ही विवाद हुआ था क्योंकि अनिल अंबानी की कंपनी को रक्षा उपकरण बनाने का ठेका मिलने पर सवाल उठे थे। 24 अगस्त 2016 को पहले प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में रक्षा की मंत्रिमंडलीय समिति ने मंज़ूरी दे दी थी।
डील से एजेंट, एजेंसी, कमीशन और अनावश्यक प्रभाव डालने पर सज़ा के प्रावधान को हटाने से जो कमर्शियल सप्लायर थे उनसे सीधे बिजनेस करने का रास्ता खुल गया। इस बात को लेकर भारतीय बातचीत दल के एम पी सिंह, ए आर सुले और राजीव वर्मा ने असहमति दर्ज कराई थी। दि हिन्दू के पास जो दस्तावेज़ हैं उससे यही लगता है कि इन तीनों ने काफी कड़ी आपत्ति दर्ज कराई है। दो कंपनियों के साथ सीधे डील करने वाली बात पर नोट में लिखते हैं कि ख़रीद दो सरकारों के स्तर पर हो रही है। फिर कैसे फ्रांस सरकार उपकरणों की आपूर्ति, इंडस्ट्रीयल सेवाओं की ज़िम्मेदारी फ्रांस के इंडस्ट्रीयल सप्लायरों को सौंप सकती हैं। यानि फिर सरकारों के स्तर पर डील का मतलब ही क्या रह जाता है जब सरकार की कोई ज़िम्मेदारी नहीं रह जाती है।
तीनों अधिकारी इस बात को लेकर भी आपत्ति करते हैं कि ख़रीद के लिए पैसा फ्रांस सरकार को दिया जाना था। अब फ्रांस की कंपनियों को सीधे दिया जाएगा। वित्तीय ईमानदारी की बुनियादी शर्तों से समझौता करना उचित नहीं होगा।
अब आप हिन्दी में सोचें। रक्षा मंत्रालय के तीन बड़े अधिकारी लिख रहे हैं कि वित्तीय ईमानदारी की बुनियादी शर्तों से समझौता करना उचित नहीं होगा। वे क्यों ऐसा लिख रहे थे?
आखिर सरकार फ्रांस की दोनों कंपनियों को भ्रष्टाचार की स्थिति में कार्रवाई से क्यों बचा रही थी? अब मोदी जी ही बता सकते हैं कि भ्रष्टाचार होने पर सज़ा न देने की मेहरबानी उन्होंने क्यों की। किसके लिए की। दो डिफेंस सप्लायर के लिए क्यों की ये मेहरबानी।
एन राम अब इस बात पर आते हैं कि इस मेहरबानी को इस बात से जोड़ कर देखा जाए कि क्यों भारत सरकार ने सत्तर अस्सी हज़ार करोड़ की इस डील के लिए फ्रांस सरकार से कोई गारंटी नहीं मांगी। आप भी कोई डील करेंगे तो चाहेंगे कि पैसा न डूबे। बीच में कोई गारंटर रहे। मकान ख़रीदते समय भी आप ऐसा करते हैं। यहां तो रक्षा मंत्रालय के अधिकारी कह रहे हैं कि बैंक गारंटी ले लीजिए, सरकार से संप्रभु गांरटी ले लीजिए मगर भारत सरकार कहती है कि नहीं हम कोई गारंटी नहीं लेंगे। ये मेहरबानी किसके लिए हो रही थी?
एन राम ने लिखा है कि इसके बदले सरकार लेटर ऑफ कंफर्म पर मान जाती है जिसकी कोई कानून हैसियत नहीं होती है। उसमें यही लिखा है कि अगर सप्लाई में दिक्कतें आईं तो फ्रांस की सरकार उचित कदम उठाएगी।
यह लेटर आफ कंफर्ट भी देर से आया। 24 अगस्त 2016 की मंत्रिमंडलीय समिति की बैठक से पहले तक गारंटी लेने का प्रस्ताव था। यही कि फ्रांस की सरकार के पास एक खाता हो जिसे एस्क्रो अकाउंट कहते हैं। उसी के ज़रिए जब जब जैसा काम होगा, जितनी सप्लाई होगी, उन दो कंपनियों को पैसा दिया जाता रहेगा। कंपनियां भी इस भरोसे काम करेंगी कि माल की सप्लाई के बाद पैसा मिलेगा ही क्योंकि वह उसी की सरकार के खाते में है। लेकिन रक्षा मंत्रालय के निदेशक ख़रीद स्मिता नागराज इसे हटा देने का प्रस्ताव भेजती हैं और मंज़ूरी मिल जाती है। प्रधानमंत्री ने इसे मंज़ूरी क्यों दी ?
अब आप यहां 8 फरवरी को छपी एन राम की रिपोर्ट को याद कीजिए। उस रिपोर्ट में यही था कि 24 नवंबर 2015 को रक्षा मंत्रालय के तीन शीर्ष अधिकारी आपत्ति दर्ज करते हैं कि प्रधानमंत्री कार्यालय हमारी जानकारी के बग़ैर स्वतंत्र रूप से इस डील में घुस गया है। जिससे हमारी टीम की मोलभाव की क्षमता कमज़ोर हो जाती है। रक्षा सचिव जी मोहन कुमार भी इससे सहमत होते हुए रक्षा मंत्री को फाइल भेजते हैं। और कहते हैं कि य़ह उचित होगा कि प्रधानमंत्री कार्यालय इससे दूर रहे।
इस नोट पर रक्षा मंत्री करीब डेढ़ महीने बाद साइन करते हैं। 11 जनवरी 2016 को। ख़ूद रक्षा मंत्री फाइल पर साइन करने में डेढ़ महीना लगाते हैं। लेकिन रक्षा मंत्रालय मे वित्तीय सलाहकार सुधांशु मोहंती को फाइल देखने का पर्याप्त समय भी नहीं दिया जाता है। 14 जनवरी 2016 को सुधांशी मोहंती नोट-263 में लिखते हैं कि काश मेरे पास पूरी फाइल देखने और अनेक मुद्दों पर विचार करने का पर्याप्त समय होता। फिर भी चूंकि फाइल तुरंत रक्षा मंत्री को सौंपी जानी है मैं वित्तीय नज़र से कुछ त्वरित टिप्पणियां करना चाहता हूं।
मोहंती लिखते हैं कि अगर बैंक गारंटी या संप्रभु गारंटी की व्वस्था नहीं हो पा रही है तो कम से एक एस्क्रो अकाउंट खुल जाए जिसके ज़रिए कंपनियों को पैसा दिया जाए। इससे सप्लाई पूरी कराने की नैतिक ज़िम्मेदारी फ्रांस की सरकार की हो जाएगी। चूंकि फ्रांस की सरकार भी इस डील में एक पार्टी है और सप्लाई के लिए संयुक्त रूप से जिम्मेदार है तो उसे इस तरह के खाते से आपत्ति नहीं होनी चाहिए।
मोहंती अपने नोट में सरकार और कंपनी के बीच विवाद होने पर कैसे निपटारा होगा, उस पर जो सहमति बन चुकी थी, उसे हटाने पर भी एतराज़ दर्ज किया गया है। कानून मंत्रालय ने भी बैंक गारंटी और संप्रभु गारंटी की ज़रूरत पर ज़ोर दिया था। रक्षा मंत्रालय को भेजे गए अपने नोट में।
अब आप ख़ुद सोचें और हिन्दी में सोचें। कोई भी कथित रूप से ईमानदार सरकार किसी सौदे से भ्रष्टाचार की संभावना पर कार्रवाई करने का प्रावधान क्यों हटाएगी? बिना गारंटी के सत्तर अस्सी हज़ार करोड़ का सौदा क्यों करेगी? क्या भ्रष्टाचार होने पर सज़ा के प्रावधानों को हटाना पारदर्शिता है? आप जब इन सवालों पर सोचेंगे तो जवाब मिल जाएगा।

राफेल सौदा इतना बड़ा घोटाला है, जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती

रफाल पर ख़बर तो पढ़ी लेकिन क्या हिन्दुस्तान के पाठकों को सूचनाएँ मिलीं
हिन्दुस्तान अख़बार ने रफाल मामले को लेकर पहली ख़बर बनाई है। ख़बर को जगह भी काफी दी है। क्या आप इस पहली ख़बर को पढ़ते हुए विवाद के बारे में ठीक-ठीक जान पाते हैं? मैं चाहता हूं कि आप भी क्लिपिंग को देखें और अपने स्तर पर विश्लेषण करें। ठीक उसी तरह से जैसे आप हम एंकरों के कार्यक्रमों और भावों का विश्लेषण करते हैं। हिन्दी प्रदेश ख़ासकर बिहार, उत्तर प्रदेश और झारखंड में पढ़ा जाने वाला यह अख़बार क्या अपनी पहली ख़बर में वो सब जानकारियां देता है जिसके लिए इस ख़बर ने अख़बार में पहला स्थान प्राप्त किया है?
शीर्षक है – राफेल पर नए खुलासे से तकरार। काफी मोटे अक्षरों में लिखा गया है। मगर नया खुलासा क्या है इसकी कोई जानकारी पहले पन्ने पर प्रमुखता से नहीं मिलती है। पहले पैराग्राफ में सिर्फ एक पंक्ति है कि “एक मीडिया रिपोर्ट में दावा किया गया है कि राफेल सौदे पर प्रधानमंत्री कार्यालय ने हस्तक्षेप किया था।“ आगे की ख़बर में बयानों और खंडनों को ही प्राथमिकता दी जाती है। पहले पन्ने पर दो बयान हैं और दो खंडन हैं। उसी से जगह भर दी जाती है। पहले पन्ने के नीचे और आखिरी के हिस्से में बेहद बारीक फोंट से बल्कि सबसे छोटे फोंट में एक छोटा सा हिस्सा है जिसे हाईलाइट किया गया है कि क्या था मामला।
क्या था मामला में अख़बार ने लिखा है कि “ दावा किया गया है कि 24 नवंबर 20154 को रक्षा मंत्रालय के उपसचिव ने एक नोट भेजा, जिसमें सौदे पर पीएमओ की ओर से बातचीत पर असहमति जताई गई। कहा गया कि पीएमओ के जो अफसर फ्रांस से वार्ता दल में शामिल नहीं हैं, उन्हें फ्रांस सरकार के अफ़सरों से समानांतर चर्चा नहीं करनी चाहिए। हालांकि तत्कालीन रक्षामंत्री मनोहर पर्रिकर ने इस आपत्ति को अनावश्यक बताया था।“
विवाद का मूल कारण यही है। कायदे से नोट की तस्वीर छापनी चाहिए थी और इस बात को मोटे अक्षरों में छापना था ताकि पाठक की नज़र सबसे पहले इसी पर पड़े कि विवाद हुआ क्यों। क्या लिखा था उस नोट में। अख़बार ने अपनी तरफ से कुछ ग़लत नहीं किया लेकिन आप अपनी तरफ से सोचें कि क्या आपको अख़बार पढ़ने से ख़बर का पता चला?
इस ख़बर में हिन्दू अख़बार और एन राम का नाम नहीं है। हिन्दुस्तान ही नहीं कई अख़बारों में इसकी जानकारी नहीं होगी। किसी दूसरे का नाम न देने की अख़बारों की अपनी नीति होती है। वैसे मैं किसी ख़बर को उठाता हूं तो अख़बार और संवाददाता का नाम ज़रूर लिखता हूं।
हिन्दुस्तान के करोड़ों पाठक यह नहीं जान पाते हैं कि एन राम के इस खुलासे ने रफाल विवाद में एक ऐसा मोड़ ला दिया है जिससे पहले से चली आ रही आशंकाएं और मज़बूत होती हैं। हिन्दुस्तान के पाठक यह सब जानते तो अच्छा होता।
विशेष संवाददाता ने खबर की शुरूआत में यानी पहले पैराग्राफ में सिर्फ एक पंक्ति में लिखा है कि राफेल सौदे पर प्रधानमंत्री कार्यालय ने हस्तक्षेप किया था। बाकी सारी ख़बर राहुल और निर्मला सीतारमण के बयान पर लिखी जाती है। दोनों के बयान को अलग से बाक्स में तस्वीरों के साथ जगह मिलती है। निर्मला सीतारमण के बयान का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष था एन राम और हिन्दू पर हमला करना कि आधा पन्ना ही छापा है। पूरा पन्ना छापना चाहिए था। इस बात को पहले पन्ने की पहली ख़बर में जगह नहीं मिली है लेकिन पेज नंबर 15 पर है।
आप पाठकों को बता दूं कि निर्मला सीतारमण ने पूरे पन्ने की बात कर एक तरह से पुष्टि कर दी राम ने जिस नोट को आधार बनाकर ख़बर लिखी है वह नोट सही है। जब पूरा नोट जारी हुआ तो उसमें रक्षा मंत्री का नोट भी दिलचस्प है। रक्षा मंत्री पर्रिकर नहीं लिखते हैं कि आपने ग़लत लिखा है। बल्कि लिखते हैं कि ऐसा प्रतीत होता है कि प्रधानमंत्री कार्यालय इसकी मानिटरिंग कर रहा है। मगर क्या इसे मानिटरिंग करना कहते हैं? नोटिंग की शुरूआत इस बात से होती है कि प्रधानमंत्री कार्यालय स्वतंत्र रूप से मोलभाव कर रहा है और उसकी जानकारी रक्षा मंत्रालय को नहीं है। ऐसा लगता है कि मोनिटरिंग रक्षा मंत्रालय कर रहा है और काम प्रधानमंत्री कार्यालय। प्रधानमंत्री कार्यालय मोनिटरिंग कर रहा था तो भारत के रक्षा सचिव से या भारतीय टीम से क्यों नहीं पूछ रहा था, उसकी जानकारी में क्यों नहीं था? और रक्षा ख़रीद प्रक्रिया के किस प्रावधान के तहत प्रधानमंत्री मोनिटरिंग कर रहा था? अखबार ने इन सवालों को बताना ज़रूरी नहीं समझा है।
सारी महत्वपूर्ण बातें इधर-उधर हैं। कम मात्रा में हैं। बयान और खंडन वाला हिस्सा ज़्यादा मात्रा में है। अच्छा होता अख़बार उस नोट को छाप देता जिसे लेकर विवाद हुआ था। अखबार ने दो दो पन्ने पर काफी जगह दी है इसलिए नोट की तस्वीर छापने का अवसर था। इससे पाठक खुद भी देख पाते कि क्या लिखा है। अख़बार ने अपनी पहली ख़बर में तकरार और खंडन को प्राथमिकता दी है।
जब पूरा नोट सार्वजनिक हो चुका था तब अख़बार को डिटेल में बताना चाहिए था कि 24 नवंबर 2015 की अपनी नोटिंग में रक्षा मंत्रालय के तीन शीर्ष अधिकारियों ने क्या दर्ज किया था। इस पैराग्राफ पर तीन लोगों के दस्तख़त हैं। जिनमें से एक रफाल ख़रीद के लिए बनी कमेटी के अध्यक्ष वायुसेना के उपप्रमुख एयर मार्शल एस बी पी सिन्हा के भी साइन हैं।
उसमें यही लिखा था कि “यह साफ है कि प्रधानमंत्री कार्यालय की तरफ से अपने आप( समानांतर) बातचीत करने से रक्षा मंत्रालय और भारतीय टीम की मोलभाव की क्षमता कमज़ोर हुई है। हमें प्रधानमंत्री कार्यालय को सलाह देनी चाहिए कि कोई भी अफसर जो रक्षा सौदे के लिए बनी भारतीय टीम का हिस्सा नहीं है, वह फ्रांस सरकार के अफसरों से समानंतर बातचीत न चलाए। अगर प्रधानमंत्री कार्यालय को रक्षा मंत्रालय की टीम के प्रयासों के नतीजों पर भरोसा नहीं है तो उसे बातचीत की नई प्रक्रिया और व्यवस्था बना लेनी चाहिए। “
क्या एक पाठक के तौर पर आप इन दोनों बातों को विस्तार से जाने बग़ैर जान सकते हैं कि राहुल गांधी क्यों हमला कर रहे हैं और निर्मला सीतारमण क्यों सफाई दे रही हैं? जब आप मूल को ही ठीक से नहीं जानते हैं तब आप ठीक से नहीं जानते हैं। क्या अख़बार को अपनी तरफ से भी बताने का प्रयास नहीं करना चाहिए था?
तभी मैं कहता हूं कि अख़बार पढ़ने से पढ़ना नहीं आ जाता है। मतलब आपने ख़बर पढ़ी लेकिन सारी उपलब्ध सूचनाएं नहीं पढ़ीं। आपको लगेगा कि आपने ऐसा कुछ पढ़ा है या सुना है या देखा है मगर डिटेल आप नहीं जानते हैं।
एयर मार्शल का खंडन हाईलाइट किया गया है कि कोई समानांतर बातचीत नहीं हुई। मगर इस बातचीत हो रही थी और इससे मोलभाव की क्षमता पर असर पड़ रहा था, उस पर उनके दस्तख़त हैं। न तो सवाल पूछा गया होगा और न उन्होंने जवाब दिया होगा कि उन्होंने फिर साइन क्यों किया?
जी मोहन कुमार का भी खंडन भी बाक्स जैसा प्रमुखता से छपा है कि “यह कहना पूरी तरह ग़लत है कि पीएमओ समानांतर वार्ता कर रहा था।“ फिर जी मोहन कुमार ने उस नोट पर क्यों अपने हाथ से लिखा था “रक्षा मंत्री ध्यान दें और अच्छा है कि प्रधानमंत्री कार्यालय ऐसी बातचीत न करे क्योंकि इससे हमारी मोलभाव करने की स्थिति पर गंभीर असर पड़ता है।" अख़बार ने पाठकों के सामने जवाब में इस अंतर्विरोध को नहीं रखा है।
ज़ाहिर है अख़बार अपने पाठकों को साफ-साफ नहीं बताता है। उसके करोड़ों पाठक इस ख़बर को बारीकि से नहीं जान पाते हैं। अख़बार की अपनी नीति और अपना स्तर हो सकता है लेकिन समीक्षा का अधिकार एक पाठक के पास ही होता है। इसी तरह से आप दूसरे हिन्दी अख़बारों की ख़बरों की समीक्षा करें। इससे पाठक बेहतर होंगे, पत्रकारिता बेहतर होगी।

तबलीगी जमात के नाम पर भारतीय मीडिया का प्रोपेगेंडा

 युद्ध मुसलमानों के खिलाफ छेड़ा है उसकी लपटें अब आम मुसलमान को झुलसा रहीं हैं। कर्नाटक, दिल्ली, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड से जो खबरे...