Tuesday, February 12, 2019

जब लोग टीवी की अदालत और असली अदालत में फ़र्क़ करना भूल जाते हैं तो लोकतंत्र ख़तरे में पड़ जाता है।

 ऐसा करना कितना ख़तरनाक़ हो सकता है इसका उदाहरण रवांडा रेडियो जैसे मामलों में दिख चुका है। इस चैनल का इस्तेमाल एक समुदाय का कत्लेआम करने के लिए लोगों को उकसाने के लिए किया गया था।

आज जब चैनलों पर फ़र्ज़ी वीडियो चलाकर बेकसूरों की ज़िंदगी को ख़तरे में डाला जा रहा है, एक्टिविस्टों को बदनाम किया जा रहा है और एक समुदाय को दूसरे समुदाय के खिलाफ खड़ा किया जा रहा है तब मीडिया की ज़िम्मेदारी तय करने का काम बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है। लोग भूल जाते हैं कि टीवी स्टूडियो वाली अदालत में जज से लेकर गवाह तक सभी नकली ही होते हैं।

मैं सभी देशवासियों से अपील करता हूँ कि वे मेरे ख़िलाफ़ दर्ज की जाने वाली चार्जशीट के मामले को जनता से जुड़े अहम मसलों को दबाने के काम में इस्तेमाल नहीं होने दें। यह सवाल नहीं दबना चाहिए कि हमारे देश में पिछले साल 12,000 किसानों को आत्महत्या क्यों करनी पड़ी। यह सवाल भी बार-बार पूछा जाना चाहिए कि जिस नोटबंदी के कारण एक करोड़ से ज़्यादा लोग बेरोज़गार हुए उसकी सफलता का ढिंढोरा पीटने की बेशर्मी सरकार कहाँ से लाती है। सवाल तो यह भी है कि साढ़े चार साल में अपने देश के कर्ज़ में 49% की बढ़ोतरी करने वाले मोदी जी को विकास पुरुष कैसे कहा जा सकता है। ऐसे तमाम सवालों के दब जाने पर लोकतंत्र का ज़िंदा रहना भी संभव नहीं रह पाएगा।

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