पहली बात तो यह है कि कुछ लोगों को लगातार मज़बूत बनाकर करोड़ों को कमज़ोर बनाते जाना गणतंत्र का कोई मूल्य नहीं है। अंबानी-अडानी का मुनाफ़ा बढ़ाने के लिए सरकारी कंपनियों को कमज़ोर करते जाना अपने देश को खोखला करने के सिवा और कुछ नहीं है। जहाँ संतोषी भात-भात कहते हुए मर जाती है, वहाँ नागरिकों के हितों पर चोट करते हुए चंद अमीरों की तिजोरी भरते जाना सामाजिक अपराध है। जब सरकार सरकारी कंपनियों के लिए बैटिंग करते समय जान-बूझकर हिट विकेट हो जाती है और प्राइवेट कंपनियों के लिए हर गेंद पर छक्के मारने लगती है तो समझ लीजिए कि मैच फ़िक्सिंग हो गई है।
दूसरी बात यह है कि सामाजिक न्याय के बिना गणतंत्र का कोई मतलब नहीं रह जाता। उच्च शिक्षा में आरक्षण का नया नियम उच्च शिक्षा में शिक्षण के क्षेत्र से एससी, एसटी और ओबीसी को बाहर करने का काम करेगा। जिन समुदायों ने अभी तमाम मुश्किलों का सामना करते हुए विश्वविद्यालयों में आना शुरू ही किया था, उनके लिए ऐसा नियम बनाना आंबेडकर के सपने के साथ कितना बड़ा धोखा है इसे बताने की ज़रूरत नहीं है।
तीसरी बात यह है कि संविधान में धर्मनिरपेक्षता की बात सिर्फ़ पन्ना भरने के लिए नहीं लिखी गई थी। इस मूल्य को समाज और राजनीति में लागू करना सभी की ज़िम्मेदारी है। जब भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अपने भाषणों से मुसलमानों में असुरक्षा पैदा करते हैं तो वे संविधान के मूल्यों की धज्जियाँ उड़ा रहे होते हैं। उन्हें ऐसा करते देना उन स्वतंत्रता सेनानियों और चिंतकों की स्मृति का अपमान करने जैसा है जिनके कारण हमारे संविधान में दुनिया के सबसे प्रगतिशील मूल्य शामिल किए गए।
चौथी बात यह है कि अभिव्यक्ति की आज़ादी छीनने की कोशिश करना गणतंत्र को डरतंत्र में बदलने की कोशिश करने जैसा है। आनंद तेलतुंबडे को गिरफ़्तार करने की कोशिश इसी साज़िश का हिस्सा है। पुलिस ने कल डीयू में आनदं पटवर्धन की डॉक्यूमेंट्री का प्रदर्शन नहीं होने दिया गया। ऐसी घटनाएँ गणतंत्र के सामने खड़े ख़तरों की तरफ़ इशारा करती हैं।
बातें तो कई हैं लेकिन अभी हमें एक चीज़ का ख़ास तौर पर ध्यान रखना है। हमें किसी भी हाल में उन लोगों को गणतंत्र का अपहरण करने से रोकना होगा जो अपने स्वार्थ के लिए लोगों के भरोसे के साथ खेलने से लेकर देश बेचने तक कुछ भी करने को तैयार रहते हैं। लड़ेंगे, जीतेंगे।
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