प्रमुख संवाददाता, मुख्य संवाददाता, विशेष संवाददाता, वरिष्ठ संवाददाता, कार्यालय संवाददाता, हिन्दुस्तान ब्यूरो, हिन्दुस्तान टीम और एजेंसियां।
अगर आप हिन्दी अख़बार हिन्दुस्तान पढ़ेंगे तो 85 से अधिक छोटी बड़ी ख़बरों में पत्रकारों के नाम की जगह उनके विचित्र पदनाम मिलेंगे। आप पद का नाम दे रहे हैं, पदभार वाले का नाम नहीं दे रहे हैं। ऐसी नीति सिर्फ सामंती विवेक की पैदाइश हो सकती है। वैसे कोई हिन्दी में फेल हुआ हो तो बता दे कि प्रमुख संवाददाता और मुख्य संवाददाता में क्या अंतर होता है? यही बता दे कि प्रमुख और मुख्य में क्या अंतर होता है?
हर अखबार की अपनी बाइलाइन नीति होती है। पर यह कैसा बेकार अख़बार है कि 85 से अधिक ख़बरों में सिर्फ चार लोगों को बाइलाइन मिली है। अगर बाइलाइन के लिए ख़बरों का विशेष होना ही पैमाना है तो सॉरी, ये चार ख़बरें भी वैसी कुछ ख़ास नहीं हैं। मृत्युजंय मिश्रा, सौरभ शुक्ला, हेमंत पाण्डेय और मदन जैड़ा को बधाई। उन्हें हिन्दुस्तान में बाइलाइन मिली है।
दिल्ली के होटल में आग की ख़बर को लीजिए। अख़बार ने पूरे पन्ने पर इसे छापा है। फिर भी इस ख़बर में किसी रिपोर्टर का नाम नहीं है। इंडियन एक्सप्रेस में इसी आग वाली ख़बर में आनंद मोहन जे, महेंद्र सिंह मनरल और सौरव रॉय बर्मन को संयुक्त रूप से बाइलाइन मिली है। पहले पन्ने पर आग से ही संबंधित एक और ख़बर में आस्था सक्सेना और सौम्या लखानी को संयुक्त रूप से बाइलाइन मिली है। भीतर भी इसे पूरे पन्ने पर जगह मिली है। इसमें एक और संवाददाता का नाम है अभिनव राजपूत। यानी इस घटना को कवर कराने के लिए एक्सप्रेस ने छह संवाददाता लगाए। उनके नाम भी बताए। उनका पदनाम नहीं बताया।
हिन्दुस्तान की तरफ से भूत कवर कर रहा था कि प्रेत कवर कर रहा था, पता ही नहीं चलेगा। क्योंकि एक खबर में प्रमुख संवाददाता लिखा है तो भीतर के पन्ने पर कार्यालय संवाददाता और मुख्य संवाददाता लिखा है। क्या एक्सप्रेस के संपादक किसी और स्कूल से पत्रकारिता पढ़ कर आए हैं जो उन्हें बाइलाइन की समझ नहीं है?
मान लेते हैं कि हिन्दुस्तान में बाइलाइन की नीति बहुत सख़्त हैं। कोई बड़ी ख़बर होगी तभी मिलेगी। जिसमें पत्रकारिता नज़र आए, रिपोर्टर का जोखिम नज़र आए तो नाम मिलेगा। तो अखबार के संपादक बताए कि उसके यहां कब ऐसी ख़बर हुई है। बाइलाइन वाली ख़बरें क्यों नहीं होती हैं? क्या यह भयावह नहीं है कि 22 पन्ने के अखबार में सिर्फ चार ख़बरों में बाइलाइन है। क्या पूरे अख़बार में संवाददाताओं ने अपनी तरफ़ से कुछ भी ख़ास नहीं किया? कहीं चैनलों की तरह अख़बार में रिपोर्टिंग तो बंद नहीं कर दी गई है। सब कुछ डेस्क पर तो नहीं लिखा जा रहा है।
मैंने हिन्दुस्तान अख़बार को सैंपल के तौर पर लिया है। दूसरे हिन्दी अख़बारों की भी समीक्षा करूंगा। पाठक को अपने अख़बार से औसत की जगह धारदार पत्रकारिता की मांग करनी चाहिए। मैं हिन्दुस्तान के संपादक को सामने से बोल सकता हूं कि सॉरी सर, आपके अख़बार की पत्रकारिता बेहद औसत है। कुछ कीजिए। इसमें कोई बुराई नहीं है। वे कुछ करेंगे तो सबका भला होगा। ऐसा लगता है कि तीस हज़ारी कोर्ट के बाहर किसी ने दस रुपये में टाइप करा कर अख़बार छाप दिया हो। हम सब इसी हिन्दी के पाठक और पत्रकार हैं। अगर इसे ख़त्म होने से नहीं बचाएंगे तो हम भी नहीं बचेंगे।
संपादकों को भी कभी कभी झकझोरना पड़ता है। उन्हें बुरा लगेगा। वे आहत होंगे मगर मुझे इससे कोई दिक्कत नहीं है। कई बार काम के झोंक में पता नहीं चलता कि क्या हो रहा है। जब दूसरा बताता है तो ध्यान टूटता है। संपादक खुद अपने अख़बार को पढ़ें। क्या वे वाकई सबसे पहले अपना अख़बार पढ़ते होंगे या हिन्दू, टेलिग्राफ या एक्सप्रेस की ख़बरें देखते होंगे? कब तक हिन्दी का संपादक सपा बसपा का विश्लषण कर एक्सपर्ट बनते रहेंगे।
क्या यह पूछना गुस्ताखी होगी, मेरा अहंकार माना जाएगा कि पिछले छह महीने में हिन्दुस्तान के संपादक रहते हुए शशि शेखर जी ने पनामा पेपर्स, जज लोया, एन राम की रफाल जैसी कितनी ख़बरें की या करवाईं ? ये नाइंसाफी उन्हीं के साथ नहीं, हम सब के साथ होनी चाहिए। सारे संपादकों से उनका नाम लेकर पूछा जाना चाहिए जो न्यूज़ रूम चलाते हैं।
ख़बर भी धारदार हो और हर रिपोर्टर को नाम मिलना चाहिए। प्रमुख और मुख्य संवाददाता के बोगस अंतर की प्रथा को समाप्त कर दिया जाना चाहिए। जब आप रूटीन ख़बर में विशेष संवाददाता ही लिख रहे हैं तो नाम दे दीजिए। विशेष हटा दें ताकि पाठक को भी पता चले कि इसमें विशेष कुछ भी नहीं है। नाम देने से जवाबदेही आती है। संवाददाताओं के बीच प्रतिस्पर्धा बढ़ती है। हर हिन्दी अख़बार के न्यूज़ रूम में बहस होनी चाहिए।
हम हिन्दी के पत्रकारों ने संपादकों की सामंती प्रवृत्ति को ज़्यादा ही स्वीकार कर लिया है। व्यक्तिगत लाभ के लिए बड़े पैमाने पर सबको नुकसान पहुंचा दिया है। मैं नहीं मान सकता कि हिन्दुस्तान अख़बार में बेजोड़ पत्रकार नहीं होंगे। अगर नहीं है तो फिर काबिल पत्रकारों को खोजा जाना चाहिए। हिन्दी पत्रकारिता में ख़बरों की स्पर्धा की बहुत ज़रूरत है। ज़्यादातर अख़बार रूटीन हो गए हैं। जबकि इनके पास अभी भी संवाददाताओं की टीम होती है। तमाम संकटों के बीच पत्रकार तो पत्रकारिता करना चाहता ही है, बशर्ते करने दिया जाए।
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