Friday, April 10, 2020

तबलीगी जमात के नाम पर भारतीय मीडिया का प्रोपेगेंडा

 युद्ध मुसलमानों के खिलाफ छेड़ा है उसकी लपटें अब आम मुसलमान को झुलसा रहीं हैं। कर्नाटक, दिल्ली, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड से जो खबरें आई हैं मानवता का शर्म से झुका देतीं हैं। इन राज्यों में कई मुसलमानों को कोरोना फैलाने के नाम पर प्रताड़ित किया गया, उन्हें बेरहमी से पीटा गया, उनके साथ जानवरों जैसा सलूक किया गया। मीडिया के फैलाए गए इस ज़हर ने पढ़े लिखे स्वस्थ आदमी के दिमाग को भी सांप्रदायिकता से संक्रमित कर दिया है।  इस संक्रमण से पुलिस प्रशासन भी अछूता नहीं है। उत्तर प्रदेश के मेरठ जनपद के परीक्षितगढ़ थाना क्षेत्र मे हुई एक घटना बताती है की 'खाकी' भी मीडिया के इस प्रोपेगंडा जाल में फंस चुकी है। दरअसल  परीक्षितगढ़ थाना क्षेत्र के अंतर्गत आने वाले खानपुर गांव का एक नाबालिग छात्र तीन दिन की जमात में मवाना गया था वहां से लौटने पर उसे परीक्षिगढ़ इंटर कॉलेज में क्वॉरेंटाइन कर दिया गया। गुरुवार शाम को मुबश्शिर नाम के छात्र की रिपोर्ट आई जिसमें उसे कोरोना पाॅजिटिव बताया गया। जिसके बाद उसे मेरठ के पांचली खुर्द स्थित क्वॉरेंटाइन सेंटर भेज दिया गया।

मुबाशिर के परिजनों ने बताया कि जब मुबाशिर को लेने के लिए एंबुलेंस आई तो प्रोपेगेंडा वहां पर मौजूद परीक्षितगढ़ पुलिस के दरोगा संजय बालियान ने उस बीमार छात्र को बेरहमी के साथ लाठियों से पीटना शुरू कर दिया। परिजनों के मुताबिकं दारोगा मुबश्शिर को पीटते हुए धर्म सूचक गालियां देते हुए कह रहे था कि बता और जाएगा जमात मे?...... मुबश्शिर को अब मेरठ के पांचली स्थित क्वाॅरेंटाइन सेंटर मे रखा गया है। परिजनों के मुताबिक उसके जिस्म पर लाठियों के निशान अभी भी मौजूद हैं। एक कोरोना संक्रमित इंसान के प्रति 'स्वस्थय' इंसानों का यह रवैय्या बताता है कि वे स्वस्थय नहीं बल्कि दिमाग़ी रूप से दिवालिया हो चुके हैं। सवाल यह है कि अगर कोई शख्स कोरोना संक्रमित होता है तो क्या उसे  अपराधी माना जाएगा? क्या ऐसा भी कोई शख्स है जो खुद चाहकर अपनी मर्जी से बीमार होना चाहता हो? उसके बावजूद कोरोना रोगी मुसलमान को अपराधियों की तरह देखा जा रहा है। एक नाबालिग छात्र को कोरोना पाॅजिटिव रिपोर्ट आने पर धर्म संबंधित गालियां देकर लाठियों से पीटना क्या उस दारोगा की मानसिकता नही बताता? बीमार को पीटना तो खुद अपराध है। लेकिन इस देश में ऐसा कोई 'डाॅक्टर' नहीं है जो ऐसे 'बीमार' अफसरों का इलाज कर सके।

कोरोना के नाम पर तबलीगी जमात के बहाने जिस तरह मुसलमानों को निशाना बनाया जा रहा है वह बताता है कि इस देश को कोरोना के साथ साथ सांप्रदायिक संक्रमण से लड़ना भी बहुत जरूरी है। मीडिया के प्रोपेगेंडा युद्ध से सांप्रदायिकता जो संक्रमण फैला है उतना संक्रमण तो बीते दस सालों मे भी नहीं फैल पाया था। लेकिन बीते दो सप्ताह में मीडिया ने कोरोना को 'जमाती' बनाकर उसे महामारी बताया। ताकि दिमाग़ी रूप से दिवालिया हो चुका वर्ग कोरोना संक्रमित मुसलमान को अपराधी समझे, और मुस्लिम पहचान वाले शख्स को कोरोना फैलाने वाला बताकर उसकी लिंचिंग करना राष्ट्रभक्ती समझने लगे। अगर सरकार कोरोना को लेकर सचमुच गंभीर है,  तो उसे कोरोना के नाम पर फैलाई जा रही नफरत, मीडिया के प्रोपेगेंड युद्ध का भी इलाज ढूंढना होगा। क्योंकि कोरोना का हारना तो तय है, लेकिन उन दिमागों का क्या होगा जो कोरोना के नाम पर फैलाए गए सांप्रदायिकता के ज़हर से संक्रमित हो चुके हैं। क्या वे दशकों तक इस देश के समाजिक सद्धभाव के ताने बाने को नष्ट नहीं करेंगे? यह हल जितनी जल्दी निकल आए तो बेहतर हैं क्योंकि आए दिन स्थिती गंभीर होती जा रही है।

Thursday, April 9, 2020

कई लोग पूछ रहे हैं कि क्या तालाबंदी अगले हफ्ते हट जाएगी?

यह सवाल ही ग़लत है। पूछना चाहिए कि इन तीन हफ्तों में हमने अपनी तैयारी कितनी ठोस कर ली है कि तालाबंदी हटा सकते हैं?

इस सवाल की नज़र से देखेंगे तो तालाबंदी हटाने की कोई परिस्थिति नज़र नहीं आती है।

तालाबंदी इसलिए की जाती है ताकि संक्रमण के फैलने की रफ्तार कम कर सकें और उसका लाभ उठा कर अपनी मेडिकल सुविधाओं को तैयार कर लें।

आप इस योग्य हैं कि इस सवाल का ईमानदार जवाब ढूंढ सकते हैं। संक्रमण के जो अनुमान हैं उसके हिसाब से हमारे पास पी पी आई और वेंटिलेटर बहुत ज़्यादा कम है। हो सकता है इसकी ज़रूरत न पड़े लेकिन तालाबंदी का आधार ही तो यही है कि ऐसी स्थिति आ सकती है।

अन्य देशों की तरह भारत ने भी फरवरी, मार्च का बहुमूल्य समय गंवाया। लेकिन तालाबंदी के बाद भी मेडिकल तैयारियों में कोई बहुत तेज़ी आ गई हो ऐसा भी नहीं है।

हमारी तैयारी डाक्टरों को सुरक्षा उपकरण मुहैया कराने में भी औसत नज़र आ रही है औऱ अस्पताल के आस पास प्रोटोकॉल के फोलो करने में भी। हम इतना भी टेस्ट नहीं कर रहे कि एक अस्पताल में जो भी आएगा उसकी जांच होगी। कई जगहों पर सुनने को मिल रहा है कि मरीज़ आया कोई और बीमारी लेकर लेकिन बाद में पता चला कि संक्रमण था। ऐसी कई घटनाएं हो चुकी हैं। एम्स के न्यूरो वार्ड में 30 डाक्टर, नर्स और स्वास्थ्यकर्मी को क्वारिंटिन किया गया है। महाराजा अग्रसेन और गंगाराम अस्पताल से भी ऐसी खबरें आई हैं। तीनों जगह एक तरह की चूक हुई है। मतलब है कि अस्पतालों में ही प्रोटोकॉल पूरी तरह से स्थापित नहीं हुआ है।

यह क्यों हो रहा है?

इसलिए हो रहा है क्योंकि अस्पताल में ही आने वाले सभी मरीज़ों के टेस्ट की व्यवस्था नहीं है। अगर होती तो भर्ती से पहले टेस्ट होता और अस्पताल के भीतर संक्रमण नहीं फैलता। ऐसी खबरें बता रही हैं कि हम अस्पताल में ही संपूर्ण तालाबंदी लागू नहीं कर पा रहे हैं।

ऐसी घटनाएं बता रही हैं कि हमने तालाबंदी के तीन हफ्तों का पूरी तरह से इस्तमाल नहीं किया है। इसलिए मेरी राय में तालाबंदी जारी रखने को लेकर गोदी मीडिया के प्रोपेगैंडा की ज़रूरत नहीं है। लोग समझ रहे हैं और सहयोग कर रहे हैं। तभी सरकार को चाहिए कि वह जनता के सामने सही बात रखे। बताए कि तालाबंदी के दौरान उसकी क्या तैयारी हुई है, लक्ष्य क्या था और हुआ कितना। सरकार यह भी बताए कि वह संक्रमण के फैलने के किस अनुमान पर भरोसा करती है? क्योंकि कई तरह के अनुमान आ रहे हैं। सरकार जिस भी अनुमान पर भरोसा करती है, उसके हिसाब से 3 हफ्तों में क्या तैयारी हुई और अब जो विस्तार होगा उस दौरान किस लक्ष्य को हासिल किया जाएगा।

समस्या यह है कि बुनियादी सवाल पूछे जाने बंद हो गए हैं। आनलाइन प्रेस कांफ्रेंस हो रही है। सवाल पूछने का मौका ही नहीं आ रहा है।

तालाबंदी में हमारी तैयारी पूरी हो चुकी होती तो सुप्रीम कोर्ट को नहीं कहना पड़ता कि डाक्टरों को सारे उपकरण दिए जाएं। इस मामले में उपकरण मिलने लगे हैं लेकिन हर जगह नहीं मिले हैं। तो किस भरोसे कोई सरकार तालाबंदी हटा देगी। सरकार तैयारियों और अनुमानों का पूरा डेटा दे।

पंजाब से खबर है कि छह ज़िले में वेंटिलेटर नहीं है। बिहार के 18 ज़िलों में वेंटिलेटर नहीं है। क्या ये हमारी तैयारी है? ऐसे न जाने कितने उदाहरण हैं। टेस्ट के मामले में भारत ने सुधार तो किया है लेकिन वह संख्या सुनने में 1 लाख से बड़ी लग रही है मगर आबादी के अनुपात में कुछ भी नहीं है। जब तक यह चुनौती नहीं आई थी हम मीडिया के प्रचार के दम पर खुद को विश्व शक्ति समझने लगे हैं। जैसे ही एक चुनौती आई व्हाट्स एप यूनिवर्सिटी में बातें घूमने लगी कि अमरीका और जर्मनी मुकाबला नहीं कर पा रहे हैं।

हमने डाक्टरों के सम्मान में सामूहिकता का प्रदर्शन तो किया लेकिन कई जगहों पर इस प्रदर्शन में शामिल लोग ही इस प्रयास को नौटंकी साबित कर रहे हैं। मकानमालिक नर्स या डाक्टर को घऱ से निकाल रहे हैं। कोरोना के इलाज में लगे स्वास्थ्यकर्मियों के साथ अनेक तरह के भेदभाव हो रहे हैं।

बेशक जनता के बड़े हिस्से ने तालाबंदी का ठीक पालन किया लेकिन उसी वक्त हम इसका पालन नहीं भी कर रहे थे। मंडियों में भीड़ थी। बैंकों के बाहर भीड़ थी। लाखों मज़दूर एक साथ थे। जब तब लोग सामान भरने के लिए बाज़ार में भीड़ कर दे रहे हैं। नतीजा यह हो रहा है कि जिस हिस्से ने तालाबंदी का पालन कर खतरे को कम किया है, दूसरे हिस्से ने बड़ा कर दिया है।

मेडिकल तैयारियों के अलावा आप सामाजिक सुरक्षा के आधार पर भी मूल्यांकन करें।

ज़रूर केंद्र सरकार और राज्य सरकारों ने ग़रीब लोगों की मदद के लिए बड़ी राशि ख़र्च की है। हिसाब में हेरफेर के आंकड़ों के बाद भी दुनिया के कई देशों की तुलना में काफी कम है। सुनने में दो लाख करोड़ लगता है लेकिन लोगों के हाथ में तो पांच सौ हज़ार ही है। भारत के नेक दिल इंसान और जीवट सामाजिक संगठनों ने सरकार से बड़ा कार्यक्रम चलाया हुआ है। इनकी मदद से ही इस वक्त स्थिति संभली है लेकिन क्या लोग लंबे समय तक इसका खर्च उठा पाएंगे? चंदा तो तभी देगा जब लोगों के पास भी आएगा। व्यापार बंद होने, नौकरी जाने और सैलरी कम होने का असर इन नेक कार्यों पर भी पड़ने लगेगा। अभी से ही पड़ने लगा है।

तालाबंदी ही एकमात्र रास्ता बचा है। इस वक्त सही रास्ता है क्योंकि बाकी चीज़ों को सही करना मुश्किल हो रहा है। उसकी रफ्तार बहुत धीमी है। तालाबंदी तैयारी का मौका दे रही है तो नाकामियों पर पर्दा भी डाल रही है। आप कह सकते हैं कि तालाबंदी एक अच्छा पर्दा है। हमारे पास यही रास्ता बचा है। इसके कारण संक्रमण की रफ्तार कम होती नज़र आई है।

बेहतर है कि हम सभी शारीरिक दूरी बनाए रखें। छह फीट की दूरी ही हमें अस्पताल से बचा सकती है। जिस देश में डाक्टरों को अभी तक पर्याप्त सुरक्षा उपकरण न पहुंचे हों वहां आप सिर्फ तालाबंदी और अपने पर ही भरोसा कर सकते हैं। कई लोग लापरवाह हो जा रहे हैं। स्वाभाविक है। मगर यही प्रयास कीजिए कि तालाबंदी का सख्ती से पालन कीजिए।

24 मार्च को तालाबंदी हुई तो राज्यों को पता नहीं था। 22 मार्च को राजस्थान में तालाबंदी हो चुकी थी। अब राज्यों की तरफ़ से आवाज़ आ रही है। उनकी राय को भी आधार बनाया जा रहा है। राज्यों की मेडिकल तैयारी की हालत तो और ख़राब है। हो सकता है सरकार रेल हवाई यात्राओं में रियायत दे दे।

तमाम परिस्थियों को देख कर यही लगता है कि तालाबंदी जारी रहेगी। क्योंकि सरकारों के पास इसका तंत्र बेहतर है। उसे भी शायद पता है। उसके पास इस वक्त तालाबंदी ही एकमात्र सही हथियार है। बाकी हथियारों में जंग लगी है। इसलिए तालाबंदी से ही हमारी जंग जारी रहेगी। संक्रमण के लिहाज़ से देखें तो यह हथियार काम भी कर रहा है। हम सभी तालाबंदी के दौरान शारीरिक दूरी का सख्ती से पालन करते हुए सरकार का सहयोग करें। उसे और मौका दें ताकि अपनी तैयारी ठीक कर ले|
Ravish Kumar ki wall

Sunday, September 15, 2019

69000 शिक्षक परीक्षा के परीक्षार्थियों को बधाई, कामयाबी मिलेगी

उत्तर प्रदेश में 69000 सहायक शिक्षकों की बहाली से जुड़े परीक्षार्थियों ने अपनी लोकतांत्रिकता का अच्छा परिचय दिया है। अदालती तारीख़ों में परीक्षा का परिणाम सात-आठ महीनों से फंसा है। मैं इस परीक्षा से जुड़े छात्रों के प्रदर्शनों की तस्वीरें देखता रहता हूं। रविवार को एक तस्वीर मिली जिसमें बहुत सारी लड़कियां अपने हाथ ऊपर की हुई हैं। सबने अपने हाथ जोड़े हैं ताकि सामने खड़ी पुलिस लाठी न बरसाए। उनकी इस अपील का पुलिस पर असर भी हुआ। राज्य की क्रूरताओं का सामना करने का नैतिक बल गांधी जी देकर गए हैं। यह वही नैतिक बल है जिसके दम पर लड़कियों ने अपनी और साथी लड़कों की रक्षा की। प्रदर्शन की इन तस्वीरों में शामिल लड़कों और लड़कियों की प्रतिबद्धता की सराहना करना चाहता हूं। वीडियो और तस्वीरों में लड़के लड़कियां आपस में घुलकर अपने हक की लड़ाई लड़ रहे हैं। मेरे लिहाज़ से यह सुंदर तस्वीर है। मुझे इन परीक्षार्थियों पर गर्व है। सलाम।

इस आंदोलन की अच्छी बात है कि सभी उत्तर प्रदेश के अलग-अलग ज़िलों से आए हैं और हाथ में तख़्ती बैनर लेकर आए हैं। इस वक्त में जब मीडिया की प्राथमिकता बदल गई है ये छात्र- छात्राएं अलग-अलग ज़िलों से आकर प्रदर्शन कर रहे हैं। सुखद बात यह भी है कि इस आंदोलन में लड़कियां भी अच्छी संख्या में आई हैं। शायद सभी पहली बार मिल रहे होंगे। लड़कियां भी आपस में धरना स्थल पर मिल रही होंगी। इनका कहना है कि सरकार ने जो पात्रता तय की है उसी के अनुरूप परीक्षा पास कर चुके हैं। जब सरकार ने फार्म निकाला तो परीक्षा की तारीख में मात्र में एक महीने का वक्त दिया। अब रिज़ल्ट आने में आठ महीने की देरी क्यों हो रही है।

अपने रिज़ल्ट की मांग को लेकर छात्रों ने लखनऊ स्थित एस सी ई आर टी के दफ्तर के बाहर प्रदर्शन चला। आठ महीने से ये छात्र परीक्षा के परिणाम का इंतज़ार कर रहे हैं। अदालत में आठ बार तारीख़ बढ़ चुकी है। सात सुनवाई में महाधिवक्ता गए ही नहीं। इसलिए सुनवाई नहीं होती है और तारीख़ बढ़ जाती है। शिक्षा मित्र कोर्ट गए और जीत गई। सरकार इस फैसले को लेकर डबल बेंच गई। शिक्षा मित्रों को पिछली नौकरी के कारण ग्रेस मार्क मिले हैं जिसके कारण नई परीक्षा में ज़्यादा अंक लाने वाले छात्र पिछड़ गए। इस कारण मामला अदालत में चला गया। धरने में शामिल छात्र कोर्ट से हार गए लेकिन अब वे चाहते हैं कि सुनवाई जल्दी हो और परिणाम आए। मार्च 2019 में सिंगल बेंच का फैसला आया था। इस परीक्षा के परीक्षार्थियों का समूह कहता है कि मार्च के आदेश से 110 नंबर लाने वाले छात्र बाहर हो जाएंगे। सरकार ने परीक्षा के बाद पैमाना बनाकर गलती की। उनकी यह बात ठीक लगती है। तो जो समझ आया कि इस परीक्षा के परीक्षार्थियों में दो समूह हैं। दोनों आमने सामने है। सरकार फैसले के ख़िलाफ़ डबल बेंच चली गई है। डबल बेंच की सुनवाई के लिए सरकार की तरफ से महाधिवक्ता उपस्थित नहीं हो रहे हैं। 19 सितंबर को सुनवाई है।

मीडिया ने इन छात्रों ने अपनी सीमा से बाहर कर दिया है। ये छात्र भी मीडिया के खेल को समझने लगे हैं। मीडिया को भरोसा है कि ये छात्र उसके हिन्दू मुस्लिम प्रोपेगैंडा के सवर्था गुलाम हैं तो वह ग़लत है। फिर भी मीडिया का कारोबार जनता के बग़ैर चल जाता है। तस्वीरों में छात्रों को देखकर भरोसा हुआ कि अभी सब नहीं मरे हैं न ग़ुलाम हुए हैं। भले ही इन लोकतांत्रिक प्रदर्शनों की चर्चा दिल्ली या कहीं और नहीं हैं मगर मैं इन्हें देखकर उत्साहित हूं। नागरिक बनने की प्रक्रिया छोटे से ही समूह में सही मगर जारी है। अंत में सरकार को जवाबदेह बनाने के लिए उसके सामने खड़ा होना ही पड़ता है। 69000 शिक्षक बहाली के छात्रों ने करके दिखा दिया है। कृपया मीडिया की भूमिका पर गंभीरता से विचार कीजिए जो शर्मनाक हो चुका है।

27 अगस्त को इन्होंने पहला धरना दिया था। 11 और 12 सितंबर को 36 घंटे का प्रदर्शन किया। इस परीक्षा में चार लाख से अधिक परीक्षार्थी रिज़ल्ट का इंतज़ार कर रहे हैं। संख्या के लिहाज़ से थोड़ा निराश हूं। काश सभी चार लाख शामिल होते। अगर कोई आर्थिक मजबूरी के कारण धरना में शामिल नहीं हो सका तो उसे छूट मिलनी चाहिए लेकिन जो लोग घर बैठकर स्वार्थ और चतुराई के कारण नहीं आए उन्हें समझना चाहिए कि उनके जैसे ही लोग हैं जो लोकतंत्र की आकांक्षा को कमज़ोर कर रहे हैं। वे घर बैठे लड्डू खा लेना चाहते हैं। फिर भी ऐसे स्वार्थी लोगों की परवाह न करते हुए चंद सौ लोगों ने जो बीड़ा उठाया है वह इस वक्त की सुंदर तस्वीर है। हो सकता है कि रिज़ल्ट आने पर धरना-प्रदर्शन में शामिल कुछ का चयन न भी हो लेकिन तब भी उन्होंने एक जायज़ हक़ की लड़ाई लड़ी है और यह लड़ाई जीवन भर काम आएगी। उनके भीतर का भय छंटा है।

उम्मीद है संघर्ष के दौरान लड़के-लड़कियों ने कुछ सीखा होगा। राज्य व्यवस्था की बेरूख़ी को महसूस किया होगा। जिन सरकारों को हम धर्म या झूठ के आधार पर चुन लेते हैं या सही समझ के आधार पर चुनने के बाद भी ठगे जाते हैं, उनके सामने खड़े होने का यही एकमात्र जायज़ रास्ता है। अहिंसा और धीरज का रास्ता। मुझे भरोसा है कि आपने प्रदर्शन के दौरान अपने अकेलेपन को महसूस किया होगा। आपके भीतर झूठ पर आधारित अंध राष्ट्रवाद भरा गया। सांप्रदायिकता ने आपको खोखला कर दिया है। वो अब भी आप सभी के भीतर है। आपने अभी तक उसे अपने कमरे से बाहर नहीं निकाला है। इसलिए नागरिकता और लोकतांत्रिकता के इस बेजोड़ प्रदर्शन के बाद भी राज्य का चेहरा नहीं बदलेगा। क्योंकि आप ही नहीं बदले।

किसी भी प्रदर्शन की प्रासंगिकता सिर्फ परिणाम तक नहीं सीमित नहीं होनी चाहिए। अगर आप और सरकार की न बदले तो वह यातना दूसरे परीक्षार्थियों पर जारी रहेगी। काश अच्छा होता कि आपके प्रदर्शन में दूसरी परीक्षाओं के पीड़ित भी शामिल होते या आप भी उनके छोटे प्रदर्शन में शामिल होकर बड़ा कर देते और राज्य के सामने एक सवाल रखते कि आखिर कब हमें पारदर्शी और ईमानदार परीक्षा व्यवस्था मिलेगी? आपके भीतर का स्वार्थ राजनेताओं के काम आ रहा है। आपको एक दिन इस अंध राष्ट्रवाद के खेल को समझना ही होगा।

आप नौजवानों से मुझे कोई शिकायत नहीं। उम्मीद भी नहीं है। मैं इसका कारण जानता हूं। आपके साथ धोखा हुआ। जौनपुर, संभल या गाज़ीपुर या उन्नाव हो, वहां के स्कूलों और कालेजों को घटिया बना दिया गया। क्लास में अच्छे शिक्षक नहीं रहे। आपका छात्र जीवन बेकार गया। काश आपको अच्छी और गुणवत्तावाली शिक्षा मिली होती तो आप और लायक होते और देश और सुंदर बनता। इन हालातों में बदलाव के कोई आसार नहीं है। बस एक झूठी उम्मीद पालने की ग़लती करूंगा। आपमें से जब कोई शिक्षक बनेगा तो अच्छा और ईमानदार शिक्षक बनेगा। ख़ुद भी पढ़ेगा और छात्रों के आंगन को ज्ञान से भर देगा। ऐसा होगा नहीं फिर भी उम्मीद करने में क्या जाता है। फिलहाल प्रदर्शनों के प्रति आपकी प्रतिबद्धता के लिए बधाई देना चाहूंगा। आपने बेज़ान और डरपोक होते इस लोकतंत्र में जान फूंक दी है।

Monday, September 9, 2019

Court Grants Protection From Arrest to Shehla Rashid in Sedition Case

Sunday, September 8, 2019

साल भर में पीयूष गोयल के बयानों में ही GDP 5% लुढ़क गई

साल भर में पीयूष गोयल के बयानों में ही GDP 5% लुढ़क गई

2019 की आख़िरी तिमाही में जीडीपी की दर 10 प्रतिशत हो जाएगा- पीयूष गोयल ( 18 जून 2018, बिज़नेस स्टैंडर्ड)

वित्त वर्ष 20 में 7.5 प्रतिशत जीडीपी रहने की उम्मीद- गोयल ( 5 फ़रवरी 2019, इकॉनॉमिक टाइम्स)

एक साल में पीयूष गोयल ने खुद ही जीडीपी में 2.5 प्रतिशत की कमी कर दी। असली जीडीपी तो और 2.5 प्रतिशत कम हो गई। यानि जितना एक साल पहले कहा उसका आधा हो गया। 2019 की आख़िरी तिमाही में किसी ने 10 प्रतिशत जीडीपी देखी ? 2020 की पहली तिमाही में 5 हो गई है।

जीडीपी आज 5 है तो कल 7 हो सकती है लेकिन बयानों से कैसे लोगों को बंदर बनाया जा रहा है आप ख़ुद देख सकते हैं।

उसी तरह नोटबंदी के समय जीडीपी को लेकर दिए गए बयानों को देखिए। उस समय दूरगामी परिणाम के नाम पर जो भी कहा गया पूरा नहीं हुआ। जो थोड़े समय के लिए थोड़ा बहुत हुआ वो बग़ैर नोटबंदी के भी हो सकता था।

पूरी कोशिश ही यही होती है कि आज की हेडलाइन मैनेज करो। बड़ी बात करो जिससे लगातार लोग फ़र्ज़ी उम्मीद में रहें। उम्मीद के नाम पर अपने कारनामों पर पर्दा डालो। अब कोई नहीं पूछेगा कि दस प्रतिशत की जीडीपी आने के आसार क्या हैं?

पहले तो गोयल साहब ग्राफ़िक्स चार्ट बनाकर बता रहे थे। पाँच प्रतिशत को लेकर भी चार्ट बना देते। अब उनकी टीम कोई चार्ट नहीं बनाएगा या बनाएगी तो साबित करने के लिए कि कैसे हम चीन से आगे हैं। चीन के फ़ेल करने से भारत को टॉपर बता रहे हैं।

आप सब भूल जाते हैं। ज़ाहिर सी बात है। लेकिन थोड़ा पीछे लौट कर जाइये और देखिए कि ये क्या बयान देते हैं। मैंने यहाँ पर प्रधानमंत्री और पीयूष गोयल के पुराने ट्विट के कुछ स्क्रीन शाट्स लगाए हैं। अध्ययन करें।




प्राइम टाइम : क्या ट्रैफिक के नियम सख़्त करना ही काफ़ी होगा?

2016 से ही ट्रैफिक जुर्माना थोपने का बोगस विचार चल रहा है। एक ग़रीब मुल्क में दस दस हज़ार लोगों से वसूलने की यह तरकीब आज लोगों को बेचैन कर रही है लेकिन जब इस पर सवाल उठ रहा था तब लोग चैनलों के चिरकुटिया राष्ट्रवाद के सुख में डूबे थे। अब मज़ाक़ उड़ाने से क्या फ़ायदा। सरकार वसूली एजेंट बनती जा रही है। सिस्टम बनने से पहले जुर्माना आ गया। जिन देशों से आया है वहाँ पहले सिस्टम बना है। लेकिन वहाँ भी जुर्माने की बदहवास राशि ने आम लोगों पर क़हर ढाया है। ख़ैर जब प्रस्ताव बन रहा था तब लोग क्यों नहीं बहस कर रहे थे, सरकार को क्यों नहीं फ़ीडबैक दे रहे थे?

हमने 9 अगस्त 2016 को इस पर एक प्राइम टाइम किया था। उन्हीं दिनों के आस-पास अमरीका में हुई एक घटना का ज़िक्र वाशिंगटन पोस्ट ने किया था।

निकोल बोल्डन नाम की 32 साल की अश्वेत महिला एक दिन कार से कहीं जा रही थीं. तभी सामने वाली कार ने ग़लत तरीके से यू-टर्न किया और ब्रेक लगाने के बाद भी बोल्डन की कार टकरा गई. बोल्डन की कार में उसके दो छोटे बच्चे थे लेकिन सामने की कार वाले ने पुलिस बुलाई और बोल्डन गिरफ्तार हो गई. बोल्डन के खिलाफ पहले से ही ट्रैफिक नियमों के उल्लंघन के मामले में तीन-तीन वारंट जारी हो चुके थे क्योंकि कमज़ोर आर्थिक स्थिति के कारण बोल्डन जुर्माना नहीं भर पाई थी. एक वकील ने बताया है कि इसे हम पॉवर्टी वायलेशन कहते हैं यानी ग़रीबी के कारण लोग जुर्माना नहीं दे पाते. बीमा का प्रीमियम नहीं भर पाए तो जुर्माना, जुर्माना नहीं दे पाए तो गिरफ्तारी का वारंट. बोल्डन ने एक अदालत में किसी तरह ज़मानत की राशि तो भर दी मगर दूसरे वारंट में गिरफ्तार हो गई. ऐसे लोगों की मदद करने वाले वकीलों की संस्था ने जुर्माना राशि को 1700 अमरीकी डॉलर से कम कराने के खूब प्रयास किये. 1700 अमरीकी डॉलर मतलब भारतीय रुपये में एक लाख रुपये से भी अधिक की फाइन. किसी तरह यह कम होकर 700 डॉलर हुआ यानी 42 हज़ार से कुछ अधिक. इस दौरान उसे 1 महीने से ज्यादा जेल में रहना पड़ा. वकीलों का कहना है कि यह समझना ज़रूरी है कि यह अपराध नहीं है. ग़लती है.

'वाशिंगटन पोस्ट' की रिपोर्ट कहती है कि बड़ी संख्या में लोग वकील तक नहीं रख पाते हैं. सेंट लुई काउंटी की कमाई का 40 फीसदी हिस्सा जुर्माने से आता है. अमरीका में हालत ये हो गई है कि बेल बांड भरवाने के लिए कंपनियां खुल गई हैं. बकायदा ये बिजनेस हो गया है. ज़रूरी नहीं कि भारत में भी ऐसा हो ही जाए लेकिन फाइन की राशि अधिक होने पर दूसरी समस्याओं को दरकिनार नहीं कर सकते.
    Ravish Kumar ki wall se

https://www.ndtv.com/video/shows/prime-time/are-strict-traffic-laws-sufficient-to-curb-accidents-426845

Sunday, February 17, 2019

CRPF की एडवाइजरी: सोशल मीडिया पर शेयर न करें शहीदों के अंगों की फर्जी तस्वीरें, कुछ लोग फैला रहे हैं नफरत, यहां करें शिकायत

नई दिल्ली: 
केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (CRPF) ने रविवार को एडवाइजरी जारी करके कहा है कि कुछ शरारती तत्वपुलवामा आतंकी हमले (Pulwama Terror Attack) के शहीदों के अंगों की फर्जी तस्वीरें सोशल मीडिया पर शेयर कर रहे हैं. शरारती तत्व ऐसा करके लोगों में नफरत फैला रहे हैं. कृप्या ऐसी तस्वीरें और पोस्ट सर्कुलेट, शेयर या लाइक न करें. अगर आपकी नजर में ऐसी कोई पोस्ट आती है तो उसके बारे में webpro@crpf.gov.in पर जानकारी दें. 
बता दें, इससे पहले सेना और सीआरपीएफ ने एडवाइजरी जारी करके कहा था कि इस निराशाजनक और दर्दनाक हालात में शहीदों के परिवार की रोने-बिलखने वाली तस्वीरों को दिखाने से परहेज किया जाए, क्योंकि आतंकवादी यही चाहते हैं कि देश में दहशत का माहौल बने. ऐसी तस्वीरें आतंकवादियों का दुस्साहस बढ़ाती हैं. सीआरपीएफ ने मीडिया से अपील करते हुए कहा था कि आधिकारिक रूप से पुष्टि होने तक शहीद कर्मियों के नाम फ्लैश न किए जाएं. सेना और सीआरपीएफ ने मीडिया से एडवाइजरी का पालन करने का अनुरोध  किया है
इससे पहले सरकार ने मीडिया को सचेत किया था. आतंकी हमले की कवरेज का संज्ञान लेते हुए केंद्र सरकार ने निजी टीवी चैनलों को आगाह किया था. सरकार की तरफ से सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने जम्मू कश्मीर के पुलवामा में गुरुवार को हुए आतंकवादी हमले की पृष्ठभूमि में सभी टीवी चैनलों से ऐसी सामग्री पेश करने से बचने को कहा है, जिससे हिंसा भड़क सकती हो अथवा देश विरोधी रुख को बढ़ावा मिलता हो. 
मंत्रालय की ओर से जारी परामर्श में कहा गया था, हालिया आतंकवादी हमले को देखते हुए टीवी चैनलों को सलाह दी जाती है कि वे ऐसी किसी भी ऐसी सामग्री के प्रति सावधान रहें जो हिंसा को भड़का अथवा बढ़ावा दे सकती हैं अथवा जो कानून व्यवस्था को बनाने रखने के खिलाफ जाती हो या देश विरोधी रुख को बढ़ावा देती हो या फिर देश की अखंडता को प्रभावित करती हो.'
NDTV khabar

तबलीगी जमात के नाम पर भारतीय मीडिया का प्रोपेगेंडा

 युद्ध मुसलमानों के खिलाफ छेड़ा है उसकी लपटें अब आम मुसलमान को झुलसा रहीं हैं। कर्नाटक, दिल्ली, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड से जो खबरे...